क्या ये सही है कि कुरान का आदेश है कि यहूदी और ईसाइयों से मित्रता न करो ?

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जिस आयत पर आक्षेप किया जाता है उसका सही अनुवाद यह है।
“ईमानवालों को चाहिए कि वे ईमानवालों के विरुद्ध काफिरों को अपना संरक्षक मित्र न बनाएँ, और जो ऐसा करेगा, उसका अल्लाह से कोई सम्बन्ध नहीं…” [सूरह आले इमरान, आयत 28]
इसी तरह की एक आयत और है…
‘‘ऐ इमान लानेवालों (मुसलमानों) तुम ‘यहूदियों’ और इसार्इयों’ को मित्र न बनाओं। ये आपस मे एक दूसरे के मित्र हैं। और जो कोर्इ तुममें से उनको मित्र बनाएगा, वह उन्ही मे से होगा। नि:सन्देह अल्लाह जुल्म करनेवालों को मार्ग नही दिखाता।’’ (कुरआन, सूरा-5, आयत 51)
इस आयत में जो अरबी शब्द “अवलिया” आया है। उसका मूल “वली” है, जिसका अर्थ संरक्षक है, ना कि साधारण मित्र। अंग्रेजी में इसको “ally” कहा जाता है।


जिन काफिरों के बारे में यह कहा जा रहा है उनका हाल तो इसी सूरह में अल्लाह ने स्वयं बताया है। सुनिए। َ
“ ऐ ईमान लानेवालो! अपनों को छोड़कर दूसरों को अपना अंतरंग मित्र न बनाओ, वे तुम्हें नुक़सान पहुँचाने में कोई कमी नहीं करते। जितनी भी तुम कठिनाई में पड़ो, वही उनको प्रिय है। उनका द्वेष तो उनके मुँह से व्यक्त हो चुका है और जो कुछ उनके सीने छिपाए हुए है, वह तो इससे भी बढ़कर है। यदि तुम बुद्धि से काम लो, तो हमने तुम्हारे लिए निशानियाँ खोलकर बयान कर दी हैं।” [सूरह आले इमरान, आयत 118 ]


आप ही बताईये, ऐसे लोगों से किस प्रकार मित्रता हो सकती है? यह तो एक स्वाभाविक बात है कि जो लोग हमसे हमारे धर्म के कारण द्वेष करें और हमें हर प्रकार से नुकसान पहुंचाना चाहें उन से कोई भी मित्रता नहीं हो सकती | यह बात तो हर धर्म के लोंगों पर लागू होती है जोकि एक साधाहरण सी नैतिक बात है…(अगर मुसलमान ही ख़ुद दूसरे धर्म के लोंगों का बुरा करनें पर उतर आयें तो कौन उनसे मित्रता करना पसंद करेगा… और यह आयत ख़ास एक वक़्त में ख़ास लोंगों के लिये कही गई जो मुसलमानों को नुक्सान पहुंचानें के लिये हमेशा नये नये प्रपंच रचते रहते थे ना कि भूत वर्तमान व भविष्य के सारे यहूदी व ईसाईयों के लिए…


कुरआन में गैर धर्म के भले लोगों से दोस्ती हरगिज़ मना नहीं है।
सुनिए, कुरआन तो खुले शब्दों में कहता है।
“ अल्लाह तुम्हें इससे नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और न तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला। निस्संदेह अल्लाह न्याय करनेवालों को पसन्द करता है अल्लाह तो तुम्हें केवल उन लोगों से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की। जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम है। ” [सूरह मुम्ताहना; 60, आयत 8-9]
और सुनिए َ
“ ऐ ईमानवालो! अल्लाह के लिए खूब उठनेवाले, इनसाफ़ की निगरानी करनेवाले बनो और ऐसा न हो कि किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम इनसाफ़ करना छोड़ दो। इनसाफ़ करो, यही धर्मपरायणता से अधिक निकट है। अल्लाह का डर रखो, निश्चय ही जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह को उसकी ख़बर हैं।” [सूरह माइदह 5, आयत 8 ]
अल्लाह कभी लोगों को नहीं बाँटते। सब अल्लाह के बन्दे हैं। लोग अपनी मूर्खता और हठ से बट जाते हैं। जो लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते वह स्वयं अलग हो जाते हैं। इसमें अल्लाह का क्या दोष? इन आयात से स्पष्ट होता है कि कुरआन सभी गैर मुस्लिमों से मित्रता करने से नहीं रोकता।

लेखन : फ़ारूक़ खान

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