COMMONLY ASKED QUESTIONS
BY NON-MUSLIMS ABOUT ISLAM

Here we try to answer the most common questions that most Non-Muslims have about Islam. 

paint, acrylic paint, art supplies-2940513.jpgतस्वीर के बारे में सभी हदीसों को जमा कर के गौर करने से यह बात मालूम होती है कि हदीसों में जिन तस्वीरों के बनाने या रखने के बारे में सख्त से सख्त गुनाह बताया गया है वो दर असल वह तस्वीरें है जो उस ज़माने में पूजा के लिए बनाई जाती थी. अल्लाह के आखरी रसूल (स) जिस माहोल में थे वो शिर्क से भरा हुआ माहोल था और वहां पूजा के लिए फरिश्तों, ख्याली इंसानों, अपने बुजुर्गों, नबियों और जिन्नों की तस्वीरें बनाना और बनवाना एक आम बात थी बल्कि यह कहना ज़्यादा सही होगाकि अक्सर बस इन्ही चीज़ों की तस्वीरें बनाई जाती थी. लोगों को वो पसंद आएं इसलिए तस्वीर बनाने वाले ज़्यादा से ज़्यादा खूबसूरत और आकर्षक ख्याली तस्वीरें बना कर उन्हें खुदा का शरीक करार देते थे. अब ज़ाहिर है इस्लाम किसी भी शक्ल में शिर्क को बर्दाश्त नहीं करता इसी लिए हदीसों में ऐसी तस्वीरें बनाने वालों को मुशरिकके बराबर करार दिया गया है, क्यों कि वह शिर्क को बढ़ावा देते हैं. बस यही इन हदीसों का पसे मंज़र है

(मुशर्रफ़ अहमद )

मुसलमान उस ही को नहीं कहते जिनको आप अपने समीप प्रतिदिन देखते हैं, …जो 5 वक़्त नमाज़ पड़ते हैं रोज़ा रखते है हज करते हैं आदि…असल मैं मुसलमान शब्द का मतलब है “ईश्वर को एक मानकर उसके आगे अपनी will को समर्पित कर देना””( “सरेंडर in obedience”) है…… हम जानते हैं (इब्रहिमिक धर्म अनुसार), हज़रत आदम a.s सारी मनुष्य जाति के पिता हैं जो सबसे पहले इंसान थे… उनको पहला मुसलमान बोला गया ..,…इसलिये नहीं कि वोह आज के इस्लामकी तरह धार्मिक कार्य करते थे,( ध्यान रहे यह सिर्फ अल्लाह ही जानता है कि उनकी इबादत कैसी थी या वह कैसे इबादत करते थे), बल्किउनको मुसलमान इसलिये कहा गया कि उन्होंने मुसलमान शब्द को चरितार्थ कियायानि एक ईश्वर पर विश्वास रख अपने आप को ईश्वर के सामनें समर्पित किया…जैसा कि हम जानते हैं उस वक़्त न कोई धर्म था न कोई जाति विशेष……इसलिये आप हज़रत आदम अ.स को पहला मुसलमान कहनें पर confuse न हों……आशा है आपका concept clear हो गया होगा….दूसरी बात….रही बात हिंदू के तो भाई हिन्दू कोई धर्म नहीं यह केवल एक भौगालिक नाम है यह नाम अरबी लोगों का दिया हुआ क्यूंकि अरबी लोग व्यपार करने भारत आते थे तो सिंधु नदी के किनारे रहने वाले लोगों को सम्मिलित रूप से हिन्नू बोला करते थे जो बाद मैं बिगड़ कर हिन्दू शब्द बन गया….असल धर्म सनातन है… यह वहीं धर्म है जिसको इस्लाम नें दीन ए क़य्यूम नाम से क़ुरान मैं परिभाषित किया है जिसका मतलब हमेशा से रहने वाला धर्म यानि शाश्वत धर्म यही वह धर्म मैं जिसको क़ुरान से इस्लाम नाम दिया…

अगर आप इतिहास पड़ेंगे तो सारे नबियो व महापुरुषों/अवतारों नें उस ही एक एकईशरावाद का सन्देश दिया (आर्य समाजी इस ही धर्म को मानते है… यह बात अगल है इतिहास के सफर मैं इस एक धर्म मैं नए नए धार्मिक आयाम/ मत /मान्यताएं/विचारधारा जुड़ती चली गई और लोगों नें अपने अपने अलग अलग पृथक धर्म व मत बना लिए… जबकि इस धर्मो का केंद्र बिंदु एक ही था… एकईश्वरवाद….

लेखन : (फ़ारूक़ खान)

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पहले गुरु और ईशदूत मैं विभेद कीजिये..गुरु एक ज्ञानी/भले/सत्कर्मी इंसान को बोला जाता है(साधारणतय) जो अपने शिष्यों को ज्ञान देता है सत्य मार्ग दिखता है, लेकिन ईशदूत वह गुरु होता है जिसपर ईश्वरअपनी वाणी अवतरित करता है यानि जो ईश्वरीय आदेश मानवों तक पहुंचाने होते है वह सन्देश/आदेश ईश्वर मानवों मैं से ही अपने दूत चुनकर उनपर अवतरित करता है बस अंतर इतना है हर ईशदूत गुरु होता है लेकिन गुरु ईशदूत नहीं हो सकता…ईसामसीह /आदम(स्वयंभू मनु)/हज़. नूह(जल प्लावन वाले मनु)/हज़. इब्राहिम/… इन सब ईशदूतों नें अपने बाद मोहम्मद सल्ल के आने की भविष्य वाणी की और कहा कि भविष्य मैं एक आख़िरी ईशदूत आएगा.. जो मोहम्मद सल्ल के बाद ईशदूत आने का सिलसिला ख़त्म कर दिया गया….

डॉ वेदप्रकाश उपाध्याय द्वारा अनुवादित ऋग्वेद 2/3/2, 5/5/2 एवं अथर्ववेद 20/127/1-3 से अंतिम दूत का इशारा मिलता है (कितना सही है शोध का विषय है क्यूंकि अनुवाद करने वालों नें अपनी अपनी तरह इन श्लाकों की व्याख्या दी है)..

इस ही तरह बाइबि(John 16:8/16:7/14:16) Gospal मैं अंतिम दूत प्रोफेट मोहम्मद सल्ल का वर्णन है… इस ही तरहओल्ड टेस्टामेंट(तौरात-यहूदियों की क़िताब) मैं वर्णन है….

(फ़ारूक़ खान)

सबसे पहले तो यह ग़लत फेहमी दूर कर ली जाये कि भारत मैं इस्लाम 100-200 साल से है… हकीक़त मैं भारत मैं इस्लाम की शरुआत 600AD(ई०) से ही हो चुकी थी अरब के सौदागर सिंधु नदी के तट पर व्यापार करने आते थे (जो सोना/मसाले/अफ्रीकन गुड्स वगैरह) यहाँ लाकर बेचते थे… यही लोग (व्यापारीगण) इस नये धर्म इस्लाम को अपने साथ भारत में भी ले आये(और लोगों को इस नये धर्म की शिक्षाओं से अवगत कराया)….बस यहीं से भारत में इस्लाम के उदय की नींव रखी गयी… .ख़ुद भारत की पहली मस्जिद ”चीरामन जामा मस्जिद”’ भारत के पहले मुसलमान (पूर्व नाम चीरामन पारूमल भास्कर रवि वर्मा) द्वारा 629 AD(ई०)(जब पैगम्बर ऐ इस्लाम मुहम्मद सल्ल० इस संसार में हयात/मौजूद थे), भारत के केरला प्रांत में बनाई गयी ..यह तो रहा उस सवाल का जवाब कि भारत मैं इस्लाम का इतिहास 100-200 साल पुराना नहीं बल्कि 1400 साल पुराना है

दूसरी बात इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि भारतवासी पहले क्या थे… ज़्यादा नहीं कुछ सदियों पहले ही चले जाये भारत मैं छोटे छोटे क़बीले/जंगलों मैं रहने वाले आदिवासी लोगों की भरमार थी जिनको यह भी नहीं पता था कि धर्म भी कोई चीज़ होती है… उस हिसाब से आपके ग़ैर मुस्लिम भाई को यह भी कहा जा सकता है भाई आपके पूर्वज आदिवासी या जंगली थे….. क्या आपके मित्र आदिवासी बन जायेंगे….मान लिया कि सब हिन्दू थे तो इससे क्या साबित हो जायेगा….

आज भी बहुत से लोग धर्म परिवर्तन कर दुसरे धर्म अपना लेते है या नास्तिक हो जाते है तो क्या इसमें भी कोई गर्व करने की बात है…. हैं तो सब इंसान ही..

हम सब इंसान थे बस इतना काफ़ी है और कुछ नहीं

(फ़ारूक़ खान)

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प्रश्न को थोड़ा और विस्तार दिया जाये तो बात कुछ इस तरह होगी कि आपने कहा ”हम हिन्दू मूर्ति पूजा करते है जो इस्लाम मैं हराम है”.. 

मूर्ति पूजा इस्लाम मैं ही हराम नहीं बल्कि ईश्वर के धर्म मैं ही हराम है.. ईश्वर एक है इसलिए उसका उसका बनाया धर्म भी सबके लिए एक ही है.. ऐसा नहीं है कि ईश्वर नें कुछ को मुसलमान बनाया कुछ को हिन्दू कुछ को सिख व कुछ को नास्तिक.. etc..

स्वयं तर्क लगाए क्या यह किसी भी तरह तर्क संगत होगा कि एक ही ईश्वर मुसलमानों से कहे मेरी मूर्ति बना कर नहीं पूजो और हिन्दुओं से कहे मेरी मूर्ति बना कर पूजो.. असल मैं ईश्वर नें किसी से नहीं कहा कि मेरी मूर्ति बनाओ… जो मूर्ति पूजा करते ही ख़ुद सनातन धर्म के विपरीत करते है क्यूंकि सनातन धर्म पूर्ण रूप से मूर्ति पूजा का खंडन करता है (आर्य समाजी इसका उदाहरण है, आर्य समाज मन्दिर मैं ईश्वर की कोई प्रतिमा/मूर्ति नहीं होती),ईश्वर का धर्म एक ही है उस धर्म को ही हम संस्कृत मैं सनातन या शाश्वत धर्म कहते हैं, अरबी मैं इस्लाम या दीन ए क़य्यूम कहते हैं, उस ही धर्म का नाम इंग्लिश मैं रिलिजन ऑफ़ पीस हैं…

मूर्ति पूजा सनातन धर्म मैं पूरी तरह निषेध है, मूर्ति पूजा के पक्ष मैं वेदों मैं एक भी मंत्र आपको नहीं मिलेगा अगर कोई मूर्ति पूजा करता है तो वह ईश्वर के धर्म की ही अवहलेना हर रहा है वह ख़ुद ईश्वरीय धर्म पर नहीं….

रहा सवाल ईश्वर किसके साथ क्या मामला करेगा… सीधी सी बात है ईश्वर सारे धर्मो के लोगों के साथ आपने एक ही विधान के तहत मामला करेगा.. उसका बनाया हुआ विधान एक ही है… विधान यह है कि हम उसके बताये मार्ग पर चले .. उसके बताये तरीके पर जीवन गुज़ारे ,.. उसके मार्गदर्शन पर चलें तो इनाम स्वरुप वह हमको हमेशा का सुख/स्वर्ग मिलेगा… अगर इसके विपरीत ईश्वर के विरुद्ध गये उसके मार्गदर्शन को नहीं मना उसके शिक्षाओं का तिरस्कार किया तो हमारे लिए नरक है… ख़ुद फैसला कीजिये आप ईश्वर के धर्म सम्मत क्या कर रहे है और ईश्वर के साथ आपका क्या मामला है या होगा…रही बात इस्लाम के नज़रिये से मूर्ति पूजको के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये…

अंतिम वेद/क़ुरान मैं यही कहा गया है किसी के धर्म को बुरा न कहो(सूरह अल अनाम आयत 108), सबके साथ अच्छा बर्ताव करो.. किसी का दिल न दुखाओ etc… जिस ईश्वरीय परीक्षा से ग़ैर मुस्लिम गुज़र रहे है मुसलमान भी उस ही परीक्षा से गुज़र रहे हैं

(फ़ारूक़ खान)

मुताह मैरिज एक कांट्रेक्ट मैरिज है जो अरब में इस्लाम पूर्व प्रचलित थी इस विवाह में विवाह एक निश्चित अवधि बाद स्वयंमेव टूट जाएगा ऐसा अनुबंध किया जाता था, वास्तव में ये स्वच्छन्द काम तृप्ति का एक तरीका था,जिसे अरब के लोगों ने विवाह का आवरण पहना दिया था.जब नबी सल्ल० का अवतरण हुआ, इस्लाम आया, तो धीरे धीरे शराब जुए और मुताहः जैसे अन्यायपूर्ण और खराब रिवाजों को खत्म कर दिया गया,इन रिवाजों को एक झटके में खत्म इसलिये नही किया गया क्योंकि ऐसा करने पर लोग अपनी लत छोड़ नही पाते और बुरे के बुरे रह जाते, तो बजाये इसके इस्लाम ने ये तरीका अपनाया कि लोगों का मस्तिष्क धीरे धीरे भलाई की बातें आत्मसात करता जाए, और फिर जब इन बुरे रिवाजों से उन्हें रोका जाए तो वे आसानी से इन ख़राब बातों को छोड़ दें तो ऐसा विवाह जिसमे विवाह से पहले ही औरत को तलाक देने की बात तय कर दी जाए यानी कॉन्ट्रैक्ट पर शादी की जाए, यही मुताह मैरिज है, और ऐसी शादी इस्लाम मे हराम है, ऐसी शादी के हराम होने का बयान और ऐलान बहुत सी अहादीस मे है, जैसे ,सही बुखारी Vol.5/59/527, सही मुस्लिम 8/3259, सही मुस्लिम 8/3260, सही मुस्लिम 8/3262, सही मुस्लिम 8/3263, सही मुस्लिम 8/3264, सही मुस्लिम 8/3265 और अनेक अहादीस जिनमें नबी सल्ल० बार बार फरमाते हैं कि मुताह हराम है.!!और मुताह मैरिज के हराम होने की वजह पवित्र कुरान की आयत 4:24 मे अल्लाह का ये हुक्म है कि ”शादी (मर्द और औरत, दोनों की पाक दामनी यानी यौन शुचिता) पाक दामनी की हिफाज़त करने के लिए करो, न कि नाजायज ढंग से जिस्मानी ताल्लुकात बनाने के लिए ”

परन्तु इस घटना से पूर्व जब मुताहः की मनाही की घोषणा नबी सल्ल० ने नही की थी व आप सल्ल० के सामने ही लोग मुताह विवाह किया करते थे, तो नबी सल्ल० अल्लाह का इस विषय में कोई आदेश अवतरित न होने के कारण इस विषय पर मौन रहते थे, इसी समय की कुछ घटनाओं का वर्णन कुछ हदीस साहित्य में है जिनके कारण शिया मुस्लिमों का एक वर्ग मुताह को इस्लाम में अनुमतिप्राप्त विवाह मानते हैं,

पर विश्व में मुस्लिमों की लगभग 95 फ़ीसद आबादी सुन्नी मुस्लिमों की है जो मुताह को पूरी तरह हराम मानते हैं….

(फ़ारूक़ खान)

अरबी भाषा में हर बुलंदी को ही ”समाउन’‘ यानि असमान कहा जाता है.

कुरआन से मालूम होता है कि बादल से लेकर सितारे वगैरह जो हम देखते हैं और जो हम नहीं देख सकते वो हम से बहुत दूर हैं, ये सब पहले आसमान में हैं (सूरेह साफ्फात आयत 6, सूरेह फुस्सिल्त आयत 12) ,लेकिन कुरआन कहता है कि अल्लाह की कायनात यहाँ ख़त्म नहीं हो जाती बल्कि इसके ऊपर भी 6 दर्जे और हैं वो इससे भी कहीं आगे तक है जो हमारी जानकारी में अभी तक नहीं आ सकें हैं।

उनका क्या निज़ाम है वो कहाँ तक हैं उसका हमें कोई अंदाज़ा नहीं है. अभी तक हमें पहले ही आसमान की बहुत कम जानकारी है और वो इतनी कम है कि ना के बराबर है।

अरबी कायदे के मुताबिक सात का मतलब भी हमेशा सिर्फ 7 नहीं होता बल्कि कई बार अरबी में 7 को किसी चीज़ की तादाद ज़्यादा बताने के लिए भी इस्तिमाल किया जाता है। वल्लाहु आलम

(मुशर्रफ़ अहमद )

व्युत्पत्ति(शब्द के इतिहास), के अनुसार, ”अल्लाह”, अरबी शब्द अल-इलाह, (”Al” – The / ”Ilah” – ”Deity/God’ से मिलकर बना है।जिसका अर्थ है “ईश्वर”, जो हिब्रू(Hebrew) भाषा मैं ईश्वर के लिए प्रयोग किये जाने वाले शब्द “एल”(El)/ ”एलोम”(Elohim) और अरामी(Aramaic) भाषा मैं “एला” के समान मूल(Same Root word) से आता है (जो इन्जील/बाइबिल व तौरात की भाषाएँ हैं )।कहने का अर्थ यह हैं कि पिछली उम्मतों मैं अल्लाह के लिए कई शब्द प्रयोग किये जाते थे जिनके root word लगभग समान ही मिलते हैं”अल्लाह” नाम इस्लाम के आने से बहुत पहले ही से लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता रहा है…

एक छोटा सा उधारण पैगंबर ए इस्लाम मौहम्मद सल्ल° के पिता का लें सकते हैं जिनका नाम अब्दुल्लाह,(Meaning- Servant of Allah) था, जो नबी सल्ल के इस दुनिया मैं आने से पहले ही इन्तिक़ाल कर गये थे ज़ाहिर सी बात हैं यह नाम (अब्दुल्लाह) इस्लाम के अपने अस्तित्व मैं आने से पहले का ही था और उस समय के यहूदी और ईसाई ”अल्लाह” नाम से परिचित थे….

(फ़ारूक़ खान)

इस्लामी जगत में कुछ चीज़े ऐसी हैं जिन के बारे में स्वंम मुसलमानों द्वारा इतना ज़्यादा नकारात्मक उल्लेख/प्रचार कर दिया गया है जिससे उऩके बारे में ख़ुद मुसलमानों की सोच पूरी तरह नकारात्मक बन गई है… जबकि तार्किक व प्रामाणिक द्रष्टी से देेखा जाये तो इस्लाम उन चीज़ों के लिये उतना नकारात्मक नज़रिया नहीं रखता जितना लोगों नें स्वंय व्यक्तिगत सोच अनुरूप नकारात्मक नज़रिया बना लिया है.. यही बात सूअर के लिये है ….


इस्लाम एक जानवर की हैसियत से सूअर से नफरत करना नहीं सिखाता….

इस्लाम में जो भी पशुओं से संबंधित अधिकार (जानवरों के प्रति व्यवहार) दूसरे पशुओं को प्राप्त है वही सूअर को भी प्राप्त हैं… इस्लाम को केवल सूअर के मांस के सेवन से आपत्ति है जिसके मांस का सेवन पूरी तरह प्रतिबंधित है.(जिसके वैज्ञानिक कारण भी हैं)…सिवाय उसके उसको एक जानवर के रूप में घ्राणा करना ….इस्लामी शिक्षा नहीं….

(फ़ारूक़ खान)

इस विषय पर भ्रम मैं पड़े लोग अक़्सर यह कहते है कि क़ुरान मैं पृथ्वी को चपटा बताया गया है… जबकि ऐसा नहीं है…दहाहा का समान्यतया अर्थ किसी चीज़ को फैलाना और विस्तार देना होता है और सूरह नाज़ियात की आयत 30 का अनुवाद भी अक़्सर यहीं किया जाता है कि अल्लाह नें धरती को विस्तार दिया या फैलाया ज़ाहिर है हमारी पृथ्वी विस्तृत ही है जो लोग धरती को विस्तृत करने का अर्थ इसको ”चपटा’‘ करना लगाते हैं तो यह उनके अपने दिमाग़ का फितूर हैं या उपज है… क्यूंकि विस्तृत चीज़ चपटी ही होगी गोल नहीं हो सकती ऐसा कोई नियम/सिद्धांत नहींउदाहरण के लिए एक बड़े से मटके पर चलती हुई चींटी के लिए मटके की सतह क्या फ़ैली हुई या विस्तृत नहीं होगी...??

पृथ्वी का अर्धव्यास यानि त्रिज्जा भूमध्य रेखा पर 6270 किलोमीटर और ध्रुवों पर 6035 किलोमीटर हैं जिससे सिद्ध होता हैं कि पृथ्वी एक दम गोल नहीं है शुतुरमुर्ग के अंडे के समान ध्रुवों से थोड़ी चपटी.. (अंडा भी ऐसा ही होता है )दहाहा का दूसरा अर्थ किसी चीज़ को अंडे जैसा बनाना भी होता है अगर गूगल पर अरबी वर्ड دَحاها लिखिए… इससे सम्बंदित आपको कई चित्र आ जायेंगे जिससे आप समझ जायेंगे अरबी लोग इस शब्द का और क्या अर्थ लेते हैं..

प्राराम्भिक ज़मानों में लोग विश्वस्त थे कि ज़मीन चपटी है, यही कारण था कि सदियों तक मनुष्य केवल इसलिए सुदूर यात्रा करने से भयाक्रांति करता रहा कि कहीं वह ज़मीन के किनारों से किसी नीची खाई में न गिर पडे़!सर फ्रांस डेरिक वह पहला व्यक्ति था जिसने 1597 ई0 में धरती के गिर्द ( समुद्र मार्ग से ) चक्कर लगाया और व्यवहारिक रूप से यह सिद्ध किया कि ज़मीन गोल (वृत्ताकार ) है।

यह बिंदु दिमाग़ में रखते हुए ज़रा निम्नलिखित क़ुरआनी आयत पर विचार करें जो दिन और रात के अवागमन से सम्बंधित है: ‘‘ क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह रात को दिन में पिरोता हुआ ले आता है और दिन को रात में ‘‘ (अल-.क़ुरआन: सूर: 31 आयत 29 ) यहां स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है कि अल्लाह ताला ने क्रमवार रात के दिन में ढलने और दिन के रात में ढलने (परिवर्तित होने )की चर्चा की है ,यह केवल तभी सम्भव हो सकता है जब धरती की संरचना गोल (वृत्ताकार ) हो।

अगर धरती चपटी होती तो दिन का रात में या रात का दिन में बदलना बिल्कुल अचानक होता ।निम्न में एक और आयत देखिये जिसमें धरती के गोल बनावट की ओर इशारा किया गया है: उसने आसमानों और ज़मीन को बरहक़ (यथार्थ रूप से )उत्पन्न किया है ,, वही दिन पर रात और रात पर दिन को लपेटता है।,,(अल.-क़ुरआन: सूर:39 आयत 5)

यहां प्रयोग किये गये अरबी शब्द ‘‘कव्वर‘‘ का अर्थ है किसी एक वस्तु को दूसरे पर लपेटना या overlap करना या (एक वस्तु को दूसरी वस्तु पर) चक्कर देकर ( तार की तरह ) बांधना। दिन और रात को एक दूसरे पर लपेटना या एक दूसरे पर चक्कर देना तभी सम्भव है जब ज़मीन की बनावट गोल हो । ज़मीन किसी गेंद की भांति बिलकुल ही गोल नहीं बल्कि नारंगी की तरह (geo-spherical) है यानि ध्रुव (poles) पर से थोडी सी चपटी है।

लेखन : फ़ारूक़ खान

 

ऐसे हालत में इस्लाम ने मुसलमानों पर जो फर्ज़ किया है वो है मज़लूम का साथ देना और ज़ालिम के खिलाफ लड़ना चाहे वो कोई भी हो, इस्लाम में लड़ने का म्यार हिन्दू मुस्लिम नहीं बल्कि ज़ालिम और मज़लूम है, हर हाल में ज़ालिम के खिलाफ लड़ा जाएगा और मज़लूम की मदद की जाएगी चाहे वो मज़लूम गैर मुस्लिम ही हों तो भी मुसलमानों के खिलाफ भी लड़ा जाएगा.

एक मिनट के लिए मानलें- अल्लाह ना करे अभी पाकिस्तान भारत पर बिना वजह के ज़ालिमाना हमला कर देता है तो वो ज़ालिम है और उसके खिलाफ लड़ना जैसे भारत के मुसलमानों का फ़र्ज़ है ऐसे ही पाकिस्तानी मुसलमानों का भी फ़र्ज़ है कि वो अपने ही देश के खिलाफ खड़े हों जाएँ, अगर पाकिस्तानी मुसलमानों ने इन्साफ को छोड़ कर अपने देश की मुहब्बत में पाकिस्तान का साथ दिया तो यह इस्लाम के खिलाफ होगा, क्यों कि कुरआन में साफ़ साफ़ अल्लाह ने मुसलमानों को हर हाल में इन्साफ पर कायम रहने का हुक्म दिया है चाहे उसमें अपना अपने माँ बाप का और अपने रिश्तेदारों का ही नुक्सान होता हो (सूरेह निसा आयत 135)लेकिन अगर कहीं किसी जंग में हालात ऐसे हैं कि ना कोई मजलूम नज़र आ रहा है और ना कोई ज़ालिम ही दीखता है तो ऐसे हालात में मुसलमान को अपनी सारी कोशिश जंग को रोकने में लगा देनी चाहिए, क्यों कि सुलह करा देना जंग से कहीं बहतर है.

(मुशर्रफ़ अहमद)

इस्लामिक बैंकिंग क़ुरान बेस्ड ही होती है ।ब्याज रहित क़र्ज़ देनें की व्यवस्था जिस अनुसार यह वित्तीय प्रणाली कार्य करती है

इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था में माना जाता है कि किसी को कर्ज उसके आर्थिक उत्थान के लिए दिया जाना चाहिए, उससे कमाने के लिए नहीं। लेकिन मौजूदा कर्ज नीति कर्ज लेने वाले से कमाने पर आधारित है। बैंक इसके लिए यह तर्क देते हैं कि अगर वह कर्ज देकर ब्याज नहीं लेंगे तो अपने आपको कैसे स्थापित रख पाएंगे।

लेकिन इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था बजाय ब्याज लेने के लाभ के एक हिस्से पर साझीदारी करती है और उससे होने वाली आय के आधार पर अपने आप का आस्तत्व कायम रखती है

इस्लाम में एक नियम है कि उसके मानने वालों की साल में खाने-पीने की जरूरतों को पूरा करने के बाद जो दौलत बचती है, उस बची हुई दौलत में से ढाई फीसदी बतौर कर देना पड़ेगा जिसे जकात कहते हैं। इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था इस जकात के जरिए भी अपना फलना-फूलना जारी रखती है।मोटे तौर पर यही है इस्लामिक बैंकिंग प्रणाली….

(फ़ारूक़ खान )

मुसलमानों के वंदेमातरम् गानें से बचनें के पीछे उनका धार्मिक कारण है इस गीत के शब्द और उनसे निकलने वाले अर्थ वंदेमातरम का अर्थ होता है ”में मातृभूमि की पूजा करता हुं…”’ वंदे शब्द वंदना का क्रिया रूप है और इस शब्द के दूसरे अर्थ हैं नमन/स्तुति/प्रर्थना करना…तो जहां माँ को पूूजनें की बात है तो वहीं मुस्लिम होनें की पहली शर्त ही यही है कि व्यक्ति अल्लाह/ईश्वर को वचन दे कि ”’एक अल्लाह/ईश्वर के सिवा कोई पूजा के योग्य नहीं…ऐसे में वंदेमातरम जैसे शब्द बोलना अल्लाह को दिये वचन का विरोध करना होगा…नमन करना यानि झुकना और सजदा करना सिर्फ अल्लाह/ईश्वर के लिये है…..

बहुत से लोग तर्क देते हैं कि वंदना का अर्थ तो प्रशंसा करना होता है नाकि पूजा करना इसलिये मुसलमानों का विरोध करना निराधार है ….अब अगर इस ही तर्क को देंखे तो उनका तर्क स्वंय दूसरे तर्क से निरस्त हो जाता है वह कैसे ..वह ऐसे कि वंदना का अर्थ केवल प्रशंसा नहीं बल्कि ईश प्रशंसा होता है ख़ुद सोचिये क्या कभी किसी नें मोदी वंदना /आडवाणी वंदना/राजीव गांधी वंदना जैसे शब्द सुनें हैं यक़ीनन नहीं सुने होंगे….. जबकि हम सब नें सिर्फ सरस्वती वंदना/गणेश वंदना जैसे शब्द सुने हैं यानि वंदना देवी देवताओं के लिये रचे गये प्रशंसा गीत होते हैं वंदना जैसे शब्द इंसानों के लिये प्रयोग नहीं किये जाते ..जबकि इस्लाम में इस प्रकार की प्रशंसा का अधिकार केवल एक अल्लाह/ईश्वर का है…क़ुरआन का पहला ही वाक्य इसकी व्याख्या देता है ”अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन”'(सब तारीफे अल्लाह/ईश्वर के लिये हैं) 

(ज़िया इम्तियाज़)

पूछे गए प्रश्न से दो उत्तर बनते है पहला अपने जो शब्द ”मोहम्मदीयन” प्रयोग किया उसके सन्दर्भ मैं दूसरा मज़ार से सम्बंधित ….सर्वप्रथम ”मोहम्मदीयन” शब्द पर आपको कुछ बताना चाहूँगा ….

मोहम्मदीयन’‘ शब्द के प्रचार-प्रसार मैं लगभर दो-ढाई सौ वर्ष पहले लगभग पूरी दुनिया पर छा जाने वाले यूरोपीय (विशेषतः ब्रिटिश) साम्राज्य की बड़ी भूमिका है। ये साम्राज्यी, जिस ईश-सन्देष्टा (पैग़म्बर) को मानते थे ख़ुद उसे ही अपने धर्म का प्रवर्तक बना दिया और उस पैग़म्बर के अस्ल ईश्वरीय धर्म को बिगाड़ कर, एक नया धर्म उसी पैग़म्बर के नाम पर बना दिया। (ऐसा इसलिए किया कि पैग़म्बर के आह्वाहित अस्ल ईश्वरीय धर्म के नियमों, आदेशों, नैतिक शिक्षाओं और हलाल-हराम के क़ानूनों की पकड़ (Grip) से स्वतंत्र हो जाना चाहते थे, अतः वे ऐसे ही हो भी गए।) यही दशा इस्लाम की भी हो जाए, इसके लिए उन्होंने इस्लाम को ‘मुहम्मडन-इज़्म (Muhammadanism)’ का और मुस्लिमों को ‘मुहम्मडन्स (Muhammadans)’ का नाम दिया जिससे यह मान्यता बन जाए कि मुहम्मद सल्ल० ‘इस्लाम के प्रवर्तक (Founder)’ थे और इस प्रकार इस्लाम का इतिहास केवल 1400 वर्ष पुराना है।

न क़ुरआन में, न हदीसों (पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल॰ के कथनों) में, न इस्लामी इतिहास- साहित्य में, न अन्य इस्लामी साहित्य में…कहीं भी इस्लाम के लिए ‘मुहम्मडन-इज़्म’ शब्द और इस्लाम के अनुयायियों के लिए ‘मुहम्मडन’ शब्द प्रयुक्त हुआ है, लेकिन साम्राज्यिों की सत्ता-शक्ति, शैक्षणिक तंत्र और मिशनरी-तंत्र के विशाल व व्यापक उपकरण द्वारा, उपरोक्त मिथ्या धारणा प्रचलित कर दी गई।

भारत के बाशिन्दों में इस दुष्प्रचार का कुछ प्रभाव भी पड़ा, और वे भी इस्लाम को ‘मुहम्मडन-इज़्म’ मान बैठे। ऐसा मानने में इस तथ्य का भी अपना योगदान रहा है कि यहां पहले से ही सिद्धार्थ गौतम बुद्ध जी, ‘‘बौद्ध धर्म’’ के; और महावीर जैन जी ‘‘जैन धर्म’’ के ‘प्रवर्तक’ के रूप में सर्वपरिचित थे। इन ‘धर्मों’ (वास्तव में ‘मतों’) का इतिहास लगभग पौने तीन हज़ार वर्ष पुराना है। इसी परिदृश्य में भारतवासियों में से कुछ ने पाश्चात्य साम्राज्यिों की बातों (मुहम्मडन-इज़्म, और इस्लाम का इतिहास मात्र 1400 वर्ष की ग़लत अवधारणा) पर विश्वास कर लिया। ..

रहा प्रशन मज़ार का अगर मानव इतिहास उठा कर देखा जाये तो किसी महापुरुष के कथन से यह बात साबित नहीं कि उनके संसार से चले जानें के बाद उनकी कब्र अंतोष्टी की जगह को मज़ार/पूजन हेतु बना दिया जाये…यही सीधा सा कनेसैप्ट इस्लाम का है इस्लाम के आह्वाहक हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) व आपके साथियों(companions) नें ख़ुद कभी अपने जीवन में यह आदेश नहीं दिया कि उनके संसार को झोड़ कर चले जानें के बाद उनकी कब्रों को मज़ार या समाधि बना दी जाये……

आज के परिवेश में जो लोग मज़ारों पर जाते हैं व उसको मानते हैं वह असल में पूजा हेतु नहीं अपितु सम्मान व प्रेम की भावना से जाते हैं….मज़ार पर जाना व उसको मानना लोगों का व्यक्तिगत आचरण हो सकता है लेकिन धर्म से इसका कोई संबंध नहीं…और ना ही कोई आदेश….क्योंकि पूजनीय सिर्फ अल्लाह ईश्वर है मानव नही ….

(फ़ारूक़ खान)

दास प्रथा एक पुरानी प्रथा थी जो दुनिया भर में फैली हुई थी. यह शुरू तो जंगी कैदियों से हुई थी क्यों कि पहले जेल नहीं होती थी तो जंग में जो दुश्मनों के फ़ौजी कैदी होते थे उनको या तो क़त्ल कर दिया जाता था या अगर वो जान बचाना चाहे तो गुलाम बना लिया जाता था. लेकिन बाद में इसका गैर क़ानूनी इस्तिमाल शुरू हो गया और लोग वैसे ही दूसरे कबीले के आज़ाद आम लोगों को पकड़ कर भी बैंचने लगे. काफिले लूटे जाते तो उनको भी डाकू गुलाम बना लेते थे. कोई किसी को अकेला मिल जाता तो उसको भी गुलाम बना लिया जाता था।

कुरआन में आपने हज़रत युसूफ (अ) का किस्सा सुना ही होगा वे एक काफिले को रास्ते में मिले थे तो जिसे मिले थे उसने उन्हें गुलाम बना कर बेच दिया. बाद में मिस्र में इनकी पूरी कौम को गुलाम बना लिया गया था यही वो गुलाम कौम थी जिसे हज़रत मूसा (अ) ने आज़ाद कराया और फिर बाद में यह यहूदी कहलाए. यही पूरी दुनिया का हाल था।

इन गुलामों में औरतें भी होती थी और जो मर्द उनको खरीदता था वो उसका मालिक होता था वो उससे बिना शादी किये शारीरिक सम्बंध बनाने से ले कर घर के काम तक सब करवा सकता था।

यह कारोबार बहुत ज़्यादा बढ़ा हुआ था क्यों कि पहले ज़माने में छोटे छोटे राज्य और कबीले होते थे और उनमे में जंगे हर रोज़ होती थी और डाकू भी हर जगह बड़ी तादाद में होते थे. इसलिए यह बहुत सस्ते मिल जाते थे और एक घर में चार पांच गुलाम होना एक आम बात थी लेकिन जो अमीर होता था तो वो गुलामों की पूरी टोली रखता था. गुलामो की रोटी, कपड़ा, मकान और बुढ़ापे में उनका बोझ यह सब मालिकों के जुम्मे होता था. जिस फीमेल गुलाम के मालिक को उसमे कोई रूचि ना होती तो वो उसकी अपने दूसरे गुलाम से शादी कर देता था इसके नतीजे में जो बच्चे पैदा होते वो भी अपने माँ बाप के मालिक के गुलाम ही माने जाते थे. गुलामी के यही हालात थे जब कुरआन नाज़िल हुआ।

उस ज़माने में एक दम से सब गुलामों को आजाद करना सही ना होता क्यों कि इतनी बड़ी तादाद का अचानक बे घर और बे रोज़गार होना समाज में अपराधों को बढ़ा देता और बूढ़े गुलाम भूके मरते. लिहाज़ा कुरआन ने शराब की तरह इसे भी धीरे धीरे ख़त्म किया।

इसमें कई स्टैप लिए गए सबसे पहले तो किसी आज़ाद को ज़बरदस्ती गुलाम बनाना हराम किया गया और इसे ज़ुल्म तस्लीम किया गया.

इसके बाद गुमालों को यह हक दिया गया कि जो उनमे से आज़ाद होना चाहे वो अपने मालिक से सौदा तय करले अपनी कीमत लगा ले और उसके बाद खुद महनत मजदूरी कर के उधार लेकर के वो पैसा मालिक को दे कर आज़ाद हो जाए।

और मालिकों को कहा गया कि जो गुलाम ऐसा करना चाहे उसे करने की इजाजत दो.(देखये नूर 33)

उधर मुसलमानों को और सरकारी खज़ाने को भी हुक्म दिया कि ऐसे गुलामों की पैसे से मदद करें. (देखये सूरेह तौबा 60)

और मुसलमान मर्दों से कहा गया कि अगर तुम आज़ाद औरतों से शादी नहीं कर सकते (क्यों उस वक़्त आज़ाद औरते महर बहुत ज़्यादा लेती थी) तो किसी गुलाम खातून से बाकायदा निकाह कर लो.(सूरेह निसा 25)

कई गुनाह जैसे कसम तोड़ना, एक्सीडेंट करने पर या अपनी बीवी को अपनी माँ कहने के कफ्फारे में मुसलमानों को गुलाम आजाद करने का हुक्म हुआ. (सूरेह मायदा 89)

गुलाम खरीद कर आज़ाद करने को बहुत बड़ी नेकी करार दिया गया (सूरेह बलद 13) जिससे मुसलमानों में बात बात पर गुलाम खरीद कर आज़ाद करने का रिवाज पैदा हो गया।

फिर गुलामों के हुकूक बढ़ाए जैसे उनको अच्छा खाना अच्छा पहनना, उनसे मुश्किल काम ना कराना, एक दिन में उनकी 70 गलतियां माफ़ करना, उन पर हाथ ना उठाना और अगर उठाया तो उसे आजाद करना पड़ेगा, उन्हें गुलाम ना कहना वगैरह. जिससे उनको रखना मुश्किल हो गया. इसकी तफसील हदीसों में मिल जाएगी.

और आखिर में जंग में दुश्मनों को भी गुलाम बना कर रखने से मना कर दिया गया, हुक्म हुआ कि जंग में कैदियों को या तो पैसे लेकर छोड़ो या एहसान में छोड़ो जिससे आगे यह कारोबार हमेशा के लिए बंद हो जाए. (सूरेह मुहम्मद 4)

लिहाज़ा अब यह पूरी तरह बंद है और इसे फिर से शुरू करने का किसी को हक नहीं. अगर कोई करता है तो वो इंसानियत पर ज़ुल्म करता है और इस्लाम के खिलाफ करता है.

(मुशर्रफ़ अहमद )

जिस शब्द का इस आयत में अर्थ “कब्ज़ा” किया गया है, वो अरबी शब्द “मलकत” है, इसका अर्थ है किसी पर स्वामित्व प्राप्त होना….

बहुत से गैरमुस्लिम भाई इस आयत पर ये अनुमान लगाते हैं कि ये युद्ध में मुसलमानों द्वारा शत्रु पक्ष की आज़ाद स्त्रियों को गुलाम बनाने का वर्णन है… ऐसे भाइयों को हम बताना चाहते हैं कि इस्लाम ग़ुलामी प्रथा को ख़त्म करने आया था, न कि नए ग़ुलाम बनाने के हुक़्म देने,….ये तो अरब के काफिरों का तरीक़ा था कि वो जंग में हारने वाले आज़ाद लोगों को पकड़ कर हमेशा के लिए ग़ुलाम बना लेते थे आज़ाद स्त्रियों को गुलाम बनाकर उनसे वेश्यावृत्ति करवाते थे..……

क़ुरआन में सूरह मोहम्मद में अल्लाह ने इस बुरी प्रथा को ख़त्म करते हुए मुसलमानों को हुक़्म दिया कि “जंग के कैदियों को या तो फिदया लेकर रिहा कर दो, या एहसान के तौर पर बिना कोई क़ीमत लिए ही उन्हें रिहा कर दो“….(47:4)….तो तमाम अहादीस से भी ये पता चलता है कि आप सल्ल० ने जंग में क़ैद किये गए तमाम पुरुषों और औरतों को बाइज़्ज़त आज़ाद कर दिया था, आज़ाद होने के बाद उनमें से कई औरतों ने इस्लाम भी कुबूल किया है, उनमें एक प्रसिद्ध उदाहरण हज़रत जुवैरिया बिन्त हारिस रज़ि० का है, जिन्हें जब नबी सल्ल० ने आज़ाद करने का हुक्म दिया तो हज़रत जुवैरिया रज़ि० ने इस्लाम क़ुबूल करके नबी सल्ल० से निकाह कर लिया था…!!…..

जो बांदियाँ क़ुरआन में मुसलमानों के लिए हलाल बताई गई हैं, दरअसल वो कभी आज़ाद रही औरतें नही थीं, बल्कि ये कुफ़्फ़ार ए अरब की वो बांदियाँ थीं, जो कुफ़्फ़ार के हाथों नस्ल दर नस्ल से गुलाम बनी हुई थीं, जिन्हें कई बार खरीदा बेचा गया था, और उनकी इज़्ज़त को सलामत नही रखा था, ऐसी बांदियों के लिये अल्लाह ने मुसलमानों को हुक़्म दिया कि वो जब मुसलमानों के कब्ज़े में आएं तो मुसलमान उन बाँदियों की सहमति मिल जाने के बाद उनको अपनी पत्नी का दर्जा दे दें, उन्हें एक इज़्ज़त की ज़िंदगी दे दें और उनके जीवन भर के भरण पोषण का सहारा बन जाएं…

इसकी मिसाल मारिया किबतिया से ली जा सकती है जो या तो नस्लन ग़ुलाम थीं, या बहुत कमसिन उम्र में ग़ुलाम बना दी गई थीं… इन्हें नबी सल्ल० के पास नज़राने के तौर पर भेजा गया था, और आप सल्ल० ने उन्हें गुलाम न रखते हुए अपनी पत्नी का दर्जा दे दिया था !!….

आपके मन मे ये प्रश्न उठता होगा कि अगर इस्लाम मे मानवाधिकारों का इतना ही ख्याल रखा गया है तो मुस्लिमों के लिए तत्काल प्रभाव से गुलामों को रखना प्रतिबंधित क्यों नही कर दिया गया, जिससे दासप्रथा तत्काल खत्म हो जाती..?…

दरअसल उस समय पूरे विश्व मे लोगों को गुलाम बनाकर रखने की प्रथा चरम पर थी, और दुनिया के ताकतवर लोगों को ये प्रथा इतनी प्रिय थी कि अगर मुसलमान इस प्रथा का विरोध करते तो ताकतवर लोग मुसलमानों के साथ युद्ध और हिंसा पर उतारू हो जाते, …. सो मुसलमानों द्वारा गुलामों को ख़रीदने पर रोक न लगाने के इस्लाम के फैसले के पीछे एक बहुत बड़ा कूटनीतिक उद्देश्य ये था कि मुसलमान लोग बिना किसी युद्ध या विरोध, शांतिपूर्ण ढंग से उन गुलाम स्त्री पुरूषों को खरीदकर उन्हें आज़ाद करवा सकें, इस व्यवस्था का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण हजरत बिलाल रज़ि. का है ….. हज़रत बिलाल रज़ि. को उनपर घोर अत्याचार करने वाले उनके काफिर मालिक से खरीदकर हजरत अबूबक्र रज़ि. ने आज़ाद करवाया था

(लेखन : ज़िया इम्तियाज़)

”” तुम्हारी स्त्रियों तुम्हारी खेती है। अतः जिस प्रकार चाहो तुम अपनी खेती में आओ और अपने लिए आगे भेजो; और अल्लाह से डरते रहो; भली-भाँति जान ले कि तुम्हें उससे मिलना है; और ईमान लानेवालों को शुभ-सूचना दे दो (223) सूरह बक़रा…

इस आयत में कहां लिखा है कि ”” और भविष्य का सामान अर्थात औलाद पैदा करो।””??

मर्द और औरत जब निकाह के ज़रिये एक दूसरे के साथी बनते हैं तो इसका अस्ल मक़सद(intention) यौन तृप्ति ही नहीं होता बल्कि यह उसी क़िस्म (Type) का बामक़्सद(motive) ताल्लुक़(relation) है जो किसान और खेत के दर्मियान(between) होता है …इसमें आदमी को इतना ही संजीदा (Serious) होना चाहिये जितना खेती का मंसूबा(plans) बनानें वाला संजीदा(serious) होता है..यानि इस आयत का वह मतलब नहीं जो इस्लाम से कुण्ठा रखनें वाले निकालते हैं …यह आयत तो ख़ुद उल्टा नसीहत/ आदेश देती है कि औरत के साथ किस प्रकार रहा जाये बजाये उनको इस्तेमाल की चीज़ समझे….

इस आयत का सीधा और साधाहपण सा भावार्थ है जैसे किसान के लिये उसका खेत सबसे प्रिय होता है वह अपने खेत का रख रखाव /सिंचाई care taking सर्वोपरि रखता है….

और जिस प्रकार उसकी देखबाल हर संभव तरीके से,( जिस प्रकार चाहो तुम अपनी खेती में आओ), करता है इस ही प्रकार पति को अपनी पत्नी के साथ व्यहार करना चाहिये……

(फ़ारूक़ खान)

यूं तो तलाक़ कोई अच्छी चीज़ नहीं है और सभी लोग इसको ना पसंद करते हैं इस्लाम में भी यह एक बुरी बात समझी जाती है लेकिन इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं कि तलाक़ का हक ही इंसानों से छीन लिया जाए,
पति पत्नी में अगर किसी तरह भी निबाह नहीं हो पा रहा है तो अपनी ज़िदगी जहन्नम बनाने से बहतर है कि वो अलग हो कर अपनी ज़िन्दगी का सफ़र अपनी मर्ज़ी से पूरा करें जो कि इंसान होने के नाते उनका हक है, इसी लिए दुनियां भर के कानून में तलाक़ की गुंजाइश मौजूद है.
और इसी लिए पैगम्बरों के दीन (धर्म) में भी तलाक़ की गुंजाइश हमेशा से रही है, दीने इब्राहीम की रिवायात के मुताबिक अरब जाहिलियत के दौर में भी तलाक़ से अनजान नहीं थे, उनका इतिहास बताता है कि तलाक़ का कानून उनके यहाँ भी लगभग वही था जो अब इस्लाम में है लेकिन कुछ बिदअतें उन्होंने इसमें भी दाखिल कर दी थी.


किसी जोड़े में तलाक की नौबत आने से पहले हर किसी की यह कोशिश होनी चाहिए कि जो रिश्ते की डोर एक बार बन्ध गई है उसे मुमकिन हद तक टूटने से बचाया जाए,
जब किसी पति पत्नी का झगड़ा बढ़ता दिखाई दे तो अल्लाह ने कुरआन में उनके करीबी रिश्तेदारों और उनका भला चाहने वालों को यह हिदायत दी है कि वो आगे बढ़ें और मामले को सुधारने की कोशिश करें इसका तरीका कुरआन ने यह बतलाया है कि एक फैसला करने वाला शोहर के खानदान में से मुकर्रर करें और एक फैसला करने वाला बीवी के खानदान में से चुने और वो दोनों जज मिल कर उनमे सुलह कराने की कोशिश करें, इससे उम्मीद है कि जिस झगड़े को पति पत्नी नहीं सुलझा सके वो खानदान के बुज़ुर्ग और दूसरे हमदर्द लोगों के बीच में आने से सुलझ जाए.


कुरआन ने इसे कुछ यूं बयान किया है – और अगर तुम्हे शोहर बीवी में फूट पड़ जाने का अंदेशा हो तो एक हकम (जज) मर्द के लोगों में से और एक औरत के लोगों में से मुक़र्रर कर दो, अगर शोहर बीवी दोनों सुलह चाहेंगे तो अल्लाह उनके बीच सुलह करा देगा, बेशक अल्लाह सब कुछ जानने वाला और सब की खबर रखने वाला है (सूरेह निसा-35). इसके बावजूद भी अगर शोहर और बीवी दोनों या दोनों में से किसी एक ने तलाक का फैसला कर ही लिया है तो शोहर बीवी के खास दिनों (Menstruation) के आने का इन्तिज़ार करे, और खास दिनों के गुज़र जाने के बाद जब बीवी पाक़ हो जाए तो बिना हम बिस्तर हुए कम से कम दो जुम्मेदार लोगों को गवाह बना कर उनके सामने बीवी को एक तलाक दे, यानि शोहर बीवी से सिर्फ इतना कहे कि ”मैं तुम्हे तलाक देता हूँ”.


तलाक हर हाल में एक ही दी जाएगी दो या तीन या सौ नहीं, जो लोग जिहालत की हदें पार करते हुए दो तीन या हज़ार तलाक बोल देते हैं यह इस्लाम के बिल्कुल खिलाफ अमल है और बहुत बड़ा गुनाह है अल्लाह के रसूल (सल्लाहू अलैहि वसल्लम) के फरमान के मुताबिक जो ऐसा बोलता है वो इस्लामी शर्यत और कुरआन की मज़ाक उड़ा रहा होता है.


इस एक तलाक के बाद बीवी 3 महीने यानि 3 तीन हैज़ (जिन्हें इद्दत कहा जाता है और अगर वो प्रेग्नेंट है तो बच्चा होने) तक शोहर ही के घर रहेगी और उसका खर्च भी शोहर ही के जुम्मे रहेगा लेकिन उनके बिस्तर अलग रहेंगे, कुरआन ने सूरेह तलाक में हुक्म फ़रमाया है कि इद्दत पूरी होने से पहले ना तो बीवी को ससुराल से निकाला जाए और ना ही वो खुद निकले, इसकी वजह कुरआन ने यह बतलाई है कि इससे उम्मीद है कि इद्दत के दौरान शोहर बीवी में सुलह हो जाए और वो तलाक का फैसला वापस लेने को तैयार हो जाएं.


अक्ल की रौशनी ने अगर इस हुक्म पर गोर किया जाए तो मालूम होगा कि इसमें बड़ी अच्छी हिकमत है, हर मआशरे में बीच में आज भड़काने वाले लोग मौजूद होते ही हैं, अगर बीवी तलाक मिलते ही अपनी माँ के घर चली जाए तो ऐसे लोगों को दोनों तरफ कान भरने का मौका मिल जाएगा, इसलिए यह ज़रूरी है कि बीवी इद्दत का वक़्त शोहर ही के घर गुज़ारे.


फिर अगर शोहर बीवी में इद्दत के दौरान सुलह हो जाए तो फिरसे वो दोनों बिना कुछ किये शोहर और बीवी की हेस्यत से रह सकते हैं इसके लिए उन्हें सिर्फ इतना करना होगा कि जिन गवाहों के सामने तलाक दी थी उनको खबर करदें कि हम ने अपना फैसला बदल लिया है, कानून में इसे ही ”रुजू” करना कहते हैं और यह ज़िन्दगी में दो बार किया जा सकता है इससे ज्यादा नहीं.(सूरेह बक्राह-229) शोहर रुजू ना करे तो इद्दत के पूरा होने पर शोहर बीवी का रिश्ता ख़त्म हो जाएगा, लिहाज़ा कुरआन ने यह हिदायत फरमाई है कि इद्दत अगर पूरी होने वाली है तो शोहर को यह फैसला कर लेना चाहिए कि उसे बीवी को रोकना है या रुखसत करना है, दोनों ही सूरतों में अल्लाह का हुक्म है कि मामला भले तरीके से किया जाए, सूरेह बक्राह में हिदायत फरमाई है कि अगर बीवी को रोकने का फैसला किया है तो यह रोकना वीबी को परेशान करने के लिए हरगिज़ नहीं होना चाहिए बल्कि सिर्फ भलाई के लिए ही रोका जाए.


अल्लाह कुरआन में फरमाता है – और जब तुम औरतों को तलाक दो और वो अपनी इद्दत के खात्मे पर पहुँच जाएँ तो या तो उन्हें भले तरीक़े से रोकलो या भले तरीक़े से रुखसत करदो, और उन्हें नुक्सान पहुँचाने के इरादे से ना रोको के उनपर ज़ुल्म करो, और याद रखो के जो कोई ऐसा करेगा वो दर हकीकत अपने ही ऊपर ज़ुल्म ढाएगा, और अल्लाह की आयातों को मज़ाक ना बनाओ और अपने ऊपर अल्लाह की नेमतों को याद रखो और उस कानून और हिकमत को याद रखो जो अल्लाह ने उतारी है जिसकी वो तुम्हे नसीहत करता है, और अल्लाह से डरते रहो और ध्यान रहे के अल्लाह हर चीज़ से वाकिफ है (सूरेह बक्राह-231) लेकिन अगर उन्होंने इद्दत के दौरान रुजू नहीं किया और इद्दत का वक़्त ख़त्म हो गया तो अब उनका रिश्ता ख़त्म हो जाएगा, अब उन्हें जुदा होना है.


इस मौके पर कुरआन ने कम से कम दो जगह (सूरेह बक्राह आयत 229 और सूरेह निसा आयत 20 में) इस बात पर बहुत ज़ोर दिया है कि मर्द ने जो कुछ बीवी को पहले गहने, कीमती सामान, रूपये या कोई जाएदाद तोहफे के तौर पर दे रखी थी उसका वापस लेना शोहर के लिए बिल्कुल जायज़ नहीं है वो सब माल जो बीवी को तलाक से पहले दिया था वो अब भी बीवी का ही रहेगा और वो उस माल को अपने साथ लेकर ही घर से जाएगी, शोहर के लिए वो माल वापस मांगना या लेना या बीवी पर माल वापस करने के लिए किसी तरह का दबाव बनाना बिल्कुल जायज़ नहीं है. (नोट- अगर बीवी ने खुद तलाक मांगी थी जबकि शोहर उसके सारे हक सही से अदा कर रहा था या बीवी खुली बदकारी पर उतर आई थी जिसके बाद उसको बीवी बनाए रखना मुमकिन नहीं रहा था तो महर के अलावा उसको दिए हुए माल में से कुछ को वापस मांगना या लेना शोहर के लिए जायज़ है.)
अब इसके बाद बीवी आज़ाद है वो चाहे जहाँ जाए और जिससे चाहे शादी करे, अब पहले शोहर का उस पर कोई हक बाकि नहीं रहा.


इसके बाद तलाक देने वाला मर्द और औरत जब कभी ज़िन्दगी में दोबारा शादी करना चाहें तो वो कर सकते हैं इसके लिए उन्हें आम निकाह की तरह ही फिरसे निकाह करना होगा और शोहर को महर देने होंगे और बीवी को महर लेने होंगे.


अब फ़र्ज़ करें कि दूसरी बार निकाह करने के बाद कुछ समय के बाद उनमे फिरसे झगड़ा हो जाए और उनमे फिरसे तलाक हो जाए तो फिर से वही पूरा प्रोसेस दोहराना होगा जो मैंने ऊपर लिखा है,


अब फ़र्ज़ करें कि दूसरी बार भी तलाक के बाद वो दोनों आपस में शादी करना चाहें तो शरयत में तीसरी बार भी उन्हें निकाह करने की इजाज़त है.
लेकिन अब अगर उनको तलाक हुई तो यह तीसरी तलाक होगी जिस के बाद ना तो रुजू कर सकते हैं और ना ही आपस में निकाह किया जा सकता है.
अब चौथी बार उनकी आपस में निकाह करने की कोई गुंजाइश नहीं लेकिन सिर्फ ऐसे कि अपनी आज़ाद मर्ज़ी से वो औरत किसी दुसरे मर्द से शादी करे और इत्तिफाक़ से उनका भी निभा ना हो सके और वो दूसरा शोहर भी उसे तलाक देदे या मर जाए तो ही वो औरत पहले मर्द से निकाह कर सकती है, इसी को कानून में ”हलाला” कहते हैं.
लेकिन याद रहे यह इत्तिफ़ाक से हो तो जायज़ है जान बूझ कर या प्लान बना कर किसी और मर्द से शादी करना और फिर उससे सिर्फ इस लिए तलाक लेना ताकि पहले शोहर से निकाह जायज़ हो सके यह साजिश सरासर नाजायज़ है और अल्लाह के रसूल (स) ने ऐसी साजिश करने वालों पर लानत फरमाई है.


अगर सिर्फ बीवी तलाक चाहे तो उसे शोहर से तलाक मांगना होगी, अगर शोहर नेक इंसान होगा तो ज़ाहिर है वो बीवी को समझाने की कोशिश करेगा और फिर उसे एक तलाक दे देगा, लेकिन अगर शोहर मांगने के बावजूद भी तलाक नहीं देता तो बीवी के लिए इस्लाम में यह आसानी रखी गई है कि वो शहर काज़ी (जज) के पास जाए और उससे शोहर से तलाक दिलवाने के लिए कहे, इस्लाम ने काज़ी को यह हक़ दे रखा है कि वो उनका रिश्ता ख़त्म करने का ऐलान करदे, जिससे उनकी तलाक हो जाएगी, कानून में इसे ”खुला” कहा जाता है.


यही तलाक का सही तरीका है लेकिन अफ़सोस की बात है कि हमारे यहाँ इस तरीके की खिलाफ वर्जी भी होती है और कुछ लोग बिना सोचे समझे इस्लाम के खिलाफ तरीके से तलाक देते हैं जिससे खुद भी परेशानी उठाते हैं और इस्लाम की भी बदनामी होती है.
(मुशर्रफ अहमद)

कुछ हिन्दू और आर्य समाजी भाई जो इस्लाम धर्म के प्रति कुंठा रखते है, वो इस्लाम धर्म के प्रति सदैव दुष्प्रचार करते रहते है। और वो अक्सर आम मुसलमानों में इस्लाम के प्रति शंकाएँ उत्पन्न करने के लिए उनसे तरह तरह के प्रश्न करते रहते हैं।

बहुत से मुसलमान अज्ञानता के कारण उनसे प्रभावित हो जाते हें। उनके इन प्रश्नों में से कुछ प्रश्न अल्लाह के व्यक्तित्व के बारे में होते हैं, जिसमे वे पवित्र कुरआन की कुछ आयात के अर्थों का अनर्थ करते हैं और साधारण मुसलमानों को परेशान करते हैं। वे मुसलमानों से पूछते हैं कि क्या कुरआन में बताया गया है कि अल्लाह के हाथ हैं ? ,क्या अल्लाह किसी सिंहासन (अर्ष या कुर्सी) पर बैठे हैं ? उस सिंहासन को आठ फरिश्ते उठाए हुए हैं? क्या अल्लाह शरीर धारी और साकार है ? इन प्रश्नों के बाद वे आर्य प्रचारक वेदों से ईश्वर को निराकार सिद्ध करने लगते हैं और वेद के ईश्वर की बड़ाई करने लगते हैं। साधारण मुसलमान उनके प्रश्नों से शंकाओं में घिर जाता है।

इस लेख में मैं यह कोशिश करूंगा कि इन प्रश्नों का सही उत्तर आपको मिल जाए। जबकि ईश्वरीय ग्रंथो में ईश्वर के गुणो के लिए अलंकारिक कलात्मक भाषा का प्रयोग किया गया है। इन सब बातों को समझने के लिए एक सिद्धान्त ज़रूर याद रखना चाहिए। कि अल्लाह के गुणों के बारे में जिन शब्दों का प्रयोग हम अपने जीवन में करते हैं, वे शब्द उन गुणों की वास्तविकता को व्यक्त करने वाले नहीं होते हैं, क्योंकि जिन शब्दों का हम अल्लाह के गुणों को बताने के लिए प्रयोग करते हैं, उनही का प्रयोग हम अपने गुणों को बताने के लिए करते हैं,यद्यपि अल्लाह के गुण हमारे तरह के नहीं है। उदाहरण के लिए जब हम अपने बारे में ‘देखना‘ शब्द का प्रयोग करते हैं, तो हमारे दिमाग में यह अवधारणा होती है कि हमारी आँखे होती हैं, जिस में दृष्टि की क्षमता है, फिर बाहर से रोशनी की किरणें वस्तुओं से टकराकर हमारी आँखों में उनकी तस्वीरें बनाती हैं जो दृष्टि तंत्रिका (optic nerve) के माध्यम से हमारे दिमाग तक पहुँचती हैं। लेकिन यही शब्द ‘देखना‘ जब हम अल्लाह के लिए बोलते हैं, तो हमारा तात्पर्य यह नहीं होता कि अल्लाह को भी देखने के लिए आँखों की या रोशनी की या दृष्टि तंत्रिका की आवश्यकता है।

इसी प्रकार ‘सुनना‘ शब्द का हम अल्लाह के लिए प्रयोग करते हैं कि वह हमारी स्तुतियों और प्रार्थनाओं को सुनता है। लेकिन जब एक आर्यसमजी या हिन्दू भी कहता है कि “ईश्वर सब कुछ देखता है और सब कुछ सुनता है’ तो कोई मूर्ख पंडित उस से नहीं पूछता कि क्या ईश्वर की आँखें और कान हैं ? मैं भी आर्यों से पूछता हूँ कि जब ऋग्वेद परमेश्वर को विश्वचक्षाः अर्थात ‘समस्त जगत का दृष्टा परमेश्वर‘ कहता है (देखोमण्डल 10, सूक्त 81, मंत्र 2) तो क्या तुम्हारे ईश्वर की वास्तव में आँखें (चक्षु) हैं ?              इसी के बाद का मंत्र इस प्रकार है :–विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् | अर्थात – सब तरफ आखों वाला, सब तरफ मुख वाला, सब तरफ बाहु वाला, सब तरफ पैर वाला (परमेश्वर है) [ऋग्वेद 10/81/3]

अब अगर कोई इनसे पूछे कि क्या तुम्हारे परमेश्वर की आँखें, मुख, बाज़ू और पैर हैं, तो क्या उत्तर देंगे? अल्लाह के बारे में पवित्र कुरआन में आया है :—- ﻟَﻴْﺲَ ﻛَﻤِﺜْﻠِﻪِ ﺷَﻲْﺀٌ ۖ ﻭَﻫُﻮَ ﺍﻟﺴَّﻤِﻴﻊُ ﺍﻟْﺒَﺼِﻴﺮُ अर्थात – उसके सदृश कोई चीज़ नहीं। वही सबकुछ सुनता, देखता है[सूरह शूरा 42; आयत 11] आर्यों को इसी वास्तविकता के न समझने के कारण ठोकर लगी है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार हम दुनिया में कोई वस्तु बिना साधन के नहीं बना सकते वैसे ही उनका ईश्वर भी बिना साधनों के कुछ नहीं बना सकता।

यद्यपि दूसरी और यह भी मानते हैं कि उनका ईश्वर देखता है लेकिन हमारी तरह नहीं। सुनता है, लेकिन हमारी तरह नहीं। इन गुणों में हमारी तरह किसी साधन पर निर्भर नहीं है, फिर समझ में नहीं आता कि कोई वस्तु बनाने  में साधनों पर निर्भर क्यों है ?पवित्र कुरआन में आया है, ﻭَﻗَﺎﻟَﺖِ ﺍﻟْﻴَﻬُﻮﺩُ ﻳَﺪُ ﺍﻟﻠَّﻪِ ﻣَﻐْﻠُﻮﻟَﺔٌۚﻏُﻞْﺕَّ ﺃَﻳْﺪِﻳﻬِﻢْ ﻭَﻟُﻌِﻨُﻮﺍ ﺑِﻤَﺎ ﻗَﺎﻟُﻮﺍۘﺑَﻞْ ﻳَﺪَﺍﻩُ< ﻣَﺒْﺴُﻮﻃَﺘَﺎﻥِ ﻳُﻨْﻔِﻖُ ﻛَﻴْﻒَ ﻳَﺸَﺎﺀُ अर्थात – और यहूदी कहते है, “अल्लाह का हाथ बँध गया है।” उन्हीं के हाथ-बँधे है, और फिटकार है उनपर, उस बकवास के कारण जो वे करते है, बल्कि उसके दोनो हाथ तो खुले हुए है। वह जिस तरह चाहता है, ख़र्च करता है।[सूरह माइदह 5; आयत 64] अब यहाँ शब्द ‘यद‘ ﻳَﺪَ से कोई शारीरिक हाथ तात्पर्य नहीं है। बल्कि यह एक अलंकारिक कलात्मक विवरण है।

यहूदियों ने गरीब मुसलमानों को ताना देकर अल्लाह पर एक अपमानजनक आक्षेप किया कि अल्लाह का हाथ बंधा है अर्थात अल्लाह कंजूस है।मुसलमानों को भौतिक सुख नहीं देता। इस पर उत्तर मिला कि अल्लाह के दोनों हाथ खुले हैं अर्थात अल्लाह तोउदार है। अल्लाह इन गरीब मुसलमानों को आध्यात्मिक और भौतिक सुख, दोनों देगा और तुम देखते रह जाओगे।अब ज़रा हम ऋग्वेद के एक प्रसिद्ध सूक्त, मण्डल 10, सूक्त 90, को देखलें जिसको पुरुष सूक्त कहा जाता है। इस सूक्त में आर्यों के ईश्वर को एक पुरुष की तरह बताया गया है और इस शरीरधारी ईश्वर के अंगों से अलग अलग वस्तुओं का पैदा होना बताया गया है।

इसी सूक्त के मंत्र 12 और 13 को देखिए,

बराह्मणो अस्य मुखमासीद बाहू राजन्यः कर्तः |                        ऊरूतदस्य यद वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ||                                चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत |                       मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च पराणाद वायुरजायत ||                                     उस परमेश्वर के मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए, उसके बाहु से क्षत्रिय, उरू से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। उसके मन से चंद्रमा उत्पन्न हुआ, उसके चक्षु (आँखों) से सूर्य, मुख से इंद्रा और अग्नि तथा प्राण से वायु उत्पन्न हुए।[ऋग्वेद 10/90/12-13]

वेदो कि इस अलंकारिक भाषा को जो पंडित नही समझ पाये उन्होंने इन मंत्रो के आधार पर ही ईश्वर को रूप दे दिया और मूर्ती पूजा शुरू कर दी। उन पंडितो ने सोचा कि ईश्वर ने पूरी सृष्टि को बनाया तो उसके हाथ होंगे, ईश्वर सब कुछ सुन सकता है, देखता है, तो उसके भी कान, आँख होंगे। कुछ पंडितो ने सोचा होगा कि ईश्वर पूरी सृष्टि को अकेले कैसे बना सकता है, इसीलिए उन्होंने ईश्वर के सहायक भगवान और देवी देवताओ का रूप गढ़ दिया, हर वास्तु का अलग अलग देवी देवता बना दिया जैसे- जन्म देने वाला भगवान् अलग, पालन करने  वाला अलग, म्रत्यु देने वाला भगवान् अलग, कुछ पंडितो ने सोचा किस ईश्वर पूरी सृष्टि को दो हाथो से कैसे बना सकता है, इसीलिए उन्होंने किसी भगवान के चार हाथ, किसी के आठ हाथ तो किसी के हजार हाथ बना दिए

(लेखन : फ़ारूक़ खान)

प्रश्न से ऐसा प्रतीत होता है जैसे ईश्वर और स्पेस का बहुत कम आंकलन(Judge),किया गया है,(Underestimate किया गया है), जहाँ तक स्पेस(यूनिवर्स) की बात है यह अनंत है जिसका मानव को इल्म नहीं

..उसके बाद भी आधुनिक खगोल विज्ञान के अनुसार हमारा यूनिवर्स लगातार फ़ैल रहा है अर्थात Expend हो रहा है अगर फ़ैल रहा है तो किधर फ़ैल रहा है उसके बहार क्या है इसका भी जवाब हमारे आधुनिक विज्ञान के पास नहीं जिसका सृजनकर्ता ईश्वर है अगर हम उस सृजनकर्ता को उसके सृजन की तरह भोतिक(Physical) समझ रहे है तो भूल कर रहे है, कुरान की सूरह शूरा(42) आयत 11 मैं ईश्वर आपने बारे मैं कहता है “उसके मिसाल की भी कोई मिसाल नहीं है” यानी “”There is no likeness of His example””…

यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि यहाँ यह नहीं कहा जा रहा कि “उसके जैसा कोई नहीं” बल्कि यह कहा जा रहा है “उस सर्व शक्तिमान का उदहारण देने का भी कोई उदहारण मोजूद नहीं” यानी अगर आप ईश्वर को किसी उदहारण से समझना या समझाना चाह रहे है तो उसके example का भी कोई example नहीं दिया जा सकता तो आप यहाँ यह त्रुटी कर रहे है कि ईश्वर कोई भोतिक चीज़ मान रहे है अर्थात उसकी कोई physical state है जैसे कोई पत्थर/कुर्सी/पेड़ है, जो जगह(स्पेस) लेगा, बिल्डिंग है तो कोई जगह लेगा, एयरोप्लेन है तो जगह लेगा ..etc. 

अगर आप ईश्वर को भी उस ही Definition (उदहारण) मैं रख रहे है तो गलती कर रहे है यानी जब कहा गया कि उसका उदहारण का भी कोई उदहारण नहीं तो इसका मतलब मानव की जो Comprehension (सोचने की ताक़त) है वह उससे भी beyond (परे), की चीज़ है, Time और  space भी उस पर apply नहीं होता यानी जब कुछ नहीं था न Space न Time तब भी उसका वजूद था इसलिए यह पूछना के वह कहाँ है तर्कसंगत नहीं… सीधे शब्दों मैं कहे तो उदहारण/space/Time सब सृजन(Creation) पर apply होंगे सृजनकर्ता(ईश्वर) पर नहीं …

इस ही तरह भारतीय परंपराओं व धार्मिक ग्रंथों मैं भी ईश्वर का परिचय/परिभाषा कुछ इस तरह मिलता है “वह न दो हैं, न ही तीन, न ही चार, न ही पाँच, न ही छः, न ही सात, न ही आठ, न ही नौ , और न ही दस हैं ।

इसके विपरीत वह सिर्फ और सिर्फ एक ही है । उसके सिवाय और कोई ईश्वर नहीं है (अथर्ववेद) यानी उसके जैसा कोई दूसरा नहीं तो उसको किसी चीज़ से compare नहीं क्या जा सकता….ऐसे ही “‘न तस्य प्रतिमा अस्ति” (यजुर्वेद 32:3) यानी उसकी कोई प्रतिमा और आकार नहीं और आकार/प्रतिमा भौतिक चीज़ों पर लागु होती है यानी जो created चीज़ें है ईश्वर पर नहीं क्यूंकि ईश्वर created नहीं |सारांश यह है कि हम ईश्वर की हकीक़त जान ही नहीं सकते उसको केवल गुणों/Attribute के आधार पर समझा जा सकता है

(लेखन : फ़ारूक़ खान)

 

”’ यहाँ तक कि जब वह सूर्यास्त-स्थल तक पहुँचा तो उसे मटमैले काले पानी के एक स्रोत में डूबते हुए पाया और उसके निकट उसे एक क़ौम मिली। हमने कहा, “ऐ ज़ुलक़रनैन! तुझे अधिकार है कि चाहे तकलीफ़ पहुँचाए और चाहे उनके साथ अच्छा व्यवहार करे।” (86) सूरह कह्फ”’

सब से पहले ध्यान देने यीज्ञ यह बात है कि कुरआन कोई विज्ञान की पुस्तक नहीं है। इसका उद्देश्य हमें वैज्ञानिक तथ्य सिखाना नहीं है। कुरआन का उद्देश्य मनुष्य के जीवन का मार्गदर्शन है। कुरआन जो भी बात करता है वह इसी उद्देश्य को सामने रखकर करता है, फिर उसमें कभी विज्ञान या इतिहास का वर्णन अनुपूरक तरीके से करता है। फिर जब पैगंबर हज़रत मुहम्मद (सल्ल।) से लोगों ने जुल करनैन के बारे में पूछा तो अल्लाह का जो संदेश आया उसी का वर्णन कुरआन में है। कुरआन ने जुल करनैन का किस्सा इस ढंग से पेश किया कि उस में से लोग उपदेश ले सकें।

जुल करनैन एक महान शासक की हैसियत से अपने लोगों के साथ जो चाहे कर सकता था। लेकिन वह एक न्यायी शासक था। उस ने किसी पर अत्याचार नहीं किया। उसने आम घोषणा की कि हम केवल उसके साथ कठोरता करेंगे जो बुराई करता हुआ पाया जाए। जो व्यक्ति शांति से रहें गे उन पर कोई अत्याचार नहीं होगा।

कुरआन ने इस से यह शिक्षा दी कि एक शासक कैसा होना चाहिए और उसके न्याय के लिए जुल करनैन को सदा के लिए कुरआन में अमर कर दिया। सूरह कहफ की आयात 85, 90 और 93 मैं जुल करनेन की पश्चिम, पूरब और उत्तर के अभियानों का वर्णन किया। इसी संदर्भ में आयत 86 उसके पश्चिमी अभियान की अंतिम सीमा पर पहुँचने का वर्णन कलात्मक तरीके से करते हुए कहती है,

यहाँ तक कि जब वह सूर्यास्त-स्थल तक पहुँचा तो उसे मटमैले काले पानी के एक स्रोत में डूबते हुए पाया और उसके निकट उसे एक क़ौम मिली। [18:86]

न्याय दृष्टि से पढ़ने वाला व्यक्ति इसे विज्ञान के तराजू में क्यों तोलें जबकि यहाँ एक कलात्मक वर्णन है? कुरआन के अरबी मैं यहाँ शब्द’वजद’ का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ कुरआन के शब्दकोश’मुफ़्रदात अल्क़ुरआन'(रचयता: इमाम रागिब इस्फ़हानी) में इस प्रकार है, अर्थात पांच इंद्रियों में किसी एक से किसी चीज़ का अनुभव करना।

तो बात स्पष्ट है कि इस आयत में जुल करनेन का दृष्टि से बात व्यक्त की जा रही है कि वो जब अपने अभियान की पश्चिमी सीमा को पहुंचा और वह सूर्यास्त का समय था तो उस सूर्य का काले पानी मैं जाते हुए दर्शन किया। यह एक कलात्मक वर्णन है और जिस काले पानी की बात हो रही है उसे हम Black Sea (ब्लेक सी) के नाम से जानते हैं। यहाँ पर कोई विज्ञान विरुद्ध बात नहीं है। मुस्लिम विद्वानों ने कभी इस आयत का अर्थ यह नहीं लिया है कि सूर्य वास्तव में किसी काले पानी मैं डूबता है।

हम रोज़ अपनी आँखों से समुद्र के किनारों पर यह देखते हैं कि मानो सूर्य समुद्र में जा रहा है या ऊपर आ रहा है।

तभी तो हमारी भाषा में सूर्योदय और सूर्यास्त के शब्द बोले जाते हैं और वो भी आज कल के वैज्ञानिक युग में।

जबकि हम सब अच्छी तरह जानते हैं कि सूर्य न अस्त होता है और न उदय। यह तो केवल धरती के अपने अक्ष (axis) पर घूमने से हमें लगता है कि जैसे सूर्य उदय एवं अस्त होता है। इसी कारण मनुष्यों ने भी कई ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जो इसी को दर्शाते हैं। Japan एक राष्ट्र है और इस नाम का शाब्दिक अर्थ होता है”Land of the Rising Sun” अर्थात”सूर्योदय की धरती”है। इसी प्रकार हमारे अपने देश इंडिया के एक प्रदेश का नाम”अरुणाचल”है, जिसका अर्थ होता है”उगते सूर्य का पर्वत”। तो क्या यह नाम गलत हैं या केवल एक कलात्मक विवरण है? जो लोग कुरआन के वर्णन मैं गलती तलाश रहे हैं वे वाग्मिता एवं खूबसूरत भाषा शैली से अपरिचित हैं।

(फ़ारूक़ खान)

सबसे पहले यह जाननें की कोशिश करते हैं कि ऐसा क्यूं है…ज़्यादतर देखा जाता है मुलसमान भाईयों की यह धारणा होती है कि ”सलाम” ”अस्सलामु अलयेकुम” / ”वअलयेकुम अस्सलाम” जैसे शब्द या जवाब किसी ग़ैर मुस्लिम के लिये जायज़ नहीं … वह इसलिये कि ऐसे मुसलमान भाईयों का तर्क यह होता है किसी गैर मुस्लिम के लिये दुआ या मग़फिरत नहीं मांगी जा सकती (जैसा कि हम जानते हैं ”सलाम” एक तरह से दुआ ही है)और तो और ”सलाम” करनें के विरुद्द मौजूद ढेरों फतवे भी आग में घी डालनें का काम करते हैं

आईये जानते हैं हक़ीकत क्या है….

अक्सर मुसलमान भाईयों का यह दावा होता है कि पैगम्बर मौहम्मद(स.व) नें ग़ैर मुस्लिमों को सलाम करनें से मना फरमाया है और यह भी कहा है कि जब कोई तुमको सलाम करे तो जवाब में सिर्फ ”’वाअलयेकुम”’ कहो..…जबकि हक़ीकत कुछ और है….

असल मैं ऐसा दावा करनें वाले दो हदीसों को चिन्हित कर के अपना तर्क देते हैं…….जो निम्न हैं..

1)””अबु हुररह फरमाते हैं नबी स.व नें फरमाया यहूदी और नासार को उनके सलाम करनें से पहले सलाम मत करो.. (सही मुस्लिम, किताब 026, हदीस 5389 ),”

2)””हज़रत आयशा (र.अ) फरमातीं हैं एक बार एक यहूदी नबी(स.व) की बारगाह मैं हाज़िर हुआ और नबी(स.व) को कहा ऐ अबुल कासिम(कुन्नियत) ”अस-सामु-अलयेकुम” (तुम पर मौत हो)(नऊज़ुबिल्लाह) , इस पर नबी (स.व) नें जवाब में फरमाया ”वअलयेकुम”(तुम पर भी), आयशा(र.अ) फरमातीं हैं मेंनें उसको(यहूदी),कहा तुम पर मौत और लानत हो….इस पर आप नें फरमाया आयशा (र.अ) कठोर शब्द इस्तेमाल मत करो …हज़रत आयशा र.अ नें कहा क्या आपनें नहीं सुना उसनें क्या कहा…आपनें फरमाया क्या मेंनें उसको जवाब नहीं दिया””.. (सही मुस्लिम किताब 026, हदीस 5386)

इन हदीसों की बुनियाद पर लोग यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि ग़ैर मुस्लिम को सलाम नहीं करना चाहिये और जवाब में ”वअलयेकुम” बोलना चाहिये.. बस यहीं से सारी बात शुरू होती है गुमराह होनें की जब मुस्लिम भाई कुरआन की शिक्षा को भूल कर हदीस को कुरआन की रौशनी मैं देखे बग़ैर सीधे निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं…यह जाने बिना कि किस ख़ास आवरण मैं और ख़ास किसके लिये यह हदीस कही गयी…

विश्लेषण…..पहली हदीस दरअसल सिर्फ उसी वक़्त के लोगों(बनु क़ुरैजा) के लिये थी जो उस दौर मैं मुसलमानौं के सबसे कट्टर दुशमन थे..जिनका ईमान लाना लगभग नामुमकिन था….अब अगर इस हदीस को ही आधार मान लिया जाये तो यह हदीस तो सिर्फ यहूद(Jews) और नासार(Christians) को ही केन्र्दित करती है शेष संसार की दूसरी कोमौं हिन्दू/जैन/सिख/बौद्ध/पारसी के लिये क्या तर्क होगा…शायद कोई तर्क नहीं… लिहाज़ा यहां यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यह हदीस सिर्फ विशेष परिस्तिथी और जाति विशेष के लिये ही थी…न कि समस्त मानव जाति के लिये…

दूसरी हदीस में नबी (pbuh) नें ”वअलयेकुम”(same to u) किस परिस्तिथि में कहा….यह घ्यान रखना ज़रूरी है… जब यहूदी नें आपको (death be upon you) से greed किया तो पलटकर आपनें उसको जवाब दिया…वअलयेकुम कहकर… .”वअलयेकुम” एक ख़ास परिस्तिथी व व्यक्ति के लिये था न की सारे ग़ैर मुस्लिमों के लिये जो क़यामत तक आयेंगे…

अब आप ख़ुद सोचिये ….. क्या आपके आस पास कोई ग़ैर मुस्लिम भाई आपको ”अस-सामु अलयेकुम” (death be upon you), कहता है जो आप उसको पलट कर ”वअलयेकुम” (Same to you),कहेंगे…..नहीं ऐसा पॉसिबल नहीं ….


आइये अब देखते हैं कुरआन क्या कहता है…..

1)…और जब किसी से कोई बुरी बात सुनी तो उससे किनारा कश रहे और साफ कह दिया कि हमारे वास्ते हमारी कारगुज़ारियाँ हैं और तुम्हारे वास्ते तुम्हारी कारस्तानियाँ (बस दूर ही से) तुम्हें सलाम है हम जाहिलो (की सोहबत) के ख्वाहॉ नहीं…(Surah Qasas ayat 55)

2)… और (ख़ुदाए) रहमान के ख़ास बन्दे तो वह हैं जो ज़मीन पर फिरौतनी के साथ चल नहीं किया गया स्पष्ट है संपूर्ण मानवजाति के लिये यह बात कही गयी चाहे वह मुस्लिम हो या ग़ैर मुस्लिम…बल्कि कुरआन तो हमको ख़ुद आदेश दे रहा है कि सलाम करो और जवाब दो चाहे कोई भी हो….

निष्कर्ष ::: ग़ैर मुस्लिम को सलाम किया और जवाब दिया जा सकता है…..

(खुर्शीद इमाम) 

आमतौर पर तो यही समझा जाता है की इस्लाम 1400 वर्ष पूर्व का धर्म है। परंतु कुरआन के अनुसार इस्लाम सबसे प्राचीनतम धर्म है जिसका अनुसरण सर्वप्रथम सबसे पहले इंसान यानि हज़रत आदम एवं उनकी पत्नी हज़रत हव्वा ने किया था। धर्म के इतिहास को जब हम कुरआन की रोशनी मे देखते है तो मालूम होता है की वास्तव मे धर्म सिर्फ इस्लाम ही है बाकी जितने भी धर्म है वो या तो किसी दार्शनिक नज़रिये से निकले हैं या फिर वो मूल इस्लाम धर्म के फिरके हैं।कुरआन ऐलान करता है, “शुरू मे सब लोग एक ही तरीके पर थे। )फिर यह हालत बाक़ी न रही और विभेद प्रकट हुए( तब अल्लाह ने नबियों को भेजा, जो सीधे मार्ग पर चलने पर शुभसूचना देने वाले और टेढ़ी चाल के परिणामो से डरानवाले थे; और उनके साथ सत्य पर आधारित किताब उतारी, ताकि लोगों के बीच जो विभेद उत्पन्न हो गए थे, उनका फैसला करें – (और इन विभेदो के प्रकट होने का कारण यह न था की शुरू मे लोगों को सत्य का ज्ञान कराया ही नहीं गया था। नहीं !) विभेद उन लोगों ने किया, जिनहे सत्य का ज्ञान दिया जा चुका था। उन्होने स्पष्ट आदेश पा लेने के बाद केवल इसलिए सत्य को छोड़कर विभिन्न रास्ते निकाले की वे परस्पर ज़्यादती करना चाहते थे – अतः जिन लोगों ने पैगंबरों को माना, उन्हें अल्लाह ने अपनी अनुमति से उस सत्य का रास्ता दिखा दिया, जिसमे लोगों ने विभेद किया था। अल्लाह जिसे चाहता है सीधा मार्ग दिखा देता है। [कुरआन 2:213] इसके अतिरिक्त कुरआन मे आता है , “दीन (धर्म) तो अल्लाह की स्पष्ट में इस्लाम ही है। जिन्हें किताब दी गई थी, उन्होंने तो इसमें इसके पश्चात विभेद किया कि ज्ञान उनके पास आ चुका था। ऐसा उन्होंने परस्पर दुराग्रह के कारण किया। जो अल्लाह की आयतों का इनकार करेगा तो अल्लाह भी जल्द हिसाब लेनेवाला है। [कुरआन 3:19] 

हज़रत मुहम्मद साहब का मर्तबा इस्लाम के प्रवर्त्तक का नहीं है बल्कि इस्लाम के नवजीवनदाता का है। खुद हज़रत मुहम्मद साहब ने अपने आप को किसी नए धर्म का संस्थापक नहीं बताया बल्कि उसी “दीन ए कय्यिम (सनातन धर्म)” का जो हमेशा से ईश्वर के संदेष्टाओं का धर्म रहा है उसका प्रचारक बताया है। हज़रत मुहम्मद से पहले जो भी पैगंबर इस दुनिया मे आए जैसे की हज़रत आदम (स्वयंभु मनु), हज़रत नूह (महाजल प्लावन वाले मनु), हज़रत इब्राहीम, हज़रत मूसा, हज़रत दावूद, हज़रत ईसा (यीशु) इत्यादि (सब पर अल्लाह की सलामती हो) सभी का दीन इस्लाम (यानि ईश्वर का आज्ञापालन) ही था। 

कुरआन स्पष्ट तौर पर कहता है, उसने तुम्हारे लिए दीन का वही रास्ता मुक़र्रर किया जिस (पर चलने का) नूह को हुक्म दिया था और (ए रसूल) उसी की हमने तुम्हारे पास वही (प्रकाशना) भेजी है और उसी का इब्राहीम और मूसा और ईसा को भी हुक्म दिया था (वह) ये (है कि) दीन को क़ायम रखना और उसमे तफ़रका न डालना। बहुदेववादियों को वह चीज़ बहुत अप्रिय है, जिसकी ओर तुम उन्हें बुलाते हो। अल्लाह जिसे चाहता है अपनी ओर छाँट लेता है और अपनी ओर का मार्ग उसी को दिखाता है जो उसकी ओर रुजू करता है । [कुरआन 42:13] एक और जगह कुरआन मे स्पष्ट तौर पर आता है, “(ऐ रसूल) हमने तुम्हारे पास (भी) तो इसी तरह ‘वही’ भेजी जिस तरह नूह और उसके बाद वाले पैग़म्बरों पर भेजी थी और जिस तरह इबराहीम और इस्माइल और इसहाक़ और याक़ूब और औलादे याक़ूब व ईसा व अय्यूब व युनुस व हारून व सुलेमान के पास ‘वही’ भेजी थी और हमने दाऊद को ज़ुबूर अता की। जिनका हाल हमने तुमसे पहले ही बयान कर दिया और बहुत से ऐसे रसूल (भेजे) जिनका हाल तुमसे बयान नहीं किया और ख़ुदा ने मूसा से (बहुत सी) बातें भी कीं । [कुरआन 4:163-64] कुरआन के अनुसार हज़रत मुहम्मद साहब इस्लाम के पहले नबी (संदेष्टा) नहीं बल्कि आखरी नबी है। और तो और इस दुनिया मे सबसे पहले मुस्लिम भी हज़रत मुहम्मद नहीं बल्कि इंसानियत के पिता हज़रत आदम और उनकी पत्नी हज़रत हव्वा हैं। इस्लाम मूलतः ईश्वर के आज्ञापालन का नाम है। इस परिभाषा के अनुसार, इतिहास मे जिस जिस इंसान ने भी एक ईश्वर के स्वामित्व को कुबूल करके उसकी आज्ञा का पालन किया वो शख्स मुस्लिम अर्थात ईश्वर का आज्ञाकारी ही कहलता है। अर्थात हज़रत आदम, हज़रत नूह, हज़रत इब्राहीम, हज़रत मूसा, हज़रत दावूद, हज़रत ईसा इत्यादि सभीपैगंबर मुस्लिम (ईश्वर कि आज्ञापालन करने वाले ) ही थे। कुरआन मे आता है, “कौन है जो इबराहीम के पंथ से मुँह मोड़े सिवाय उसके जिसने स्वयं को पतित कर लिया? और उसे तो हमने दुनिया में चुन लिया था और निस्संदेह आख़िरत में उसकी गणना योग्य लोगों में होगी । क्योंकि जब उससे रब ने कहा, “मुस्लिम (आज्ञाकारी) हो जा।” उसने कहा, “मैं सारे संसार के रब का मुस्लिम हो गया।” और इसी की वसीयत इबराहीम ने अपने बेटों को की और याक़ूब ने भी (अपनी सन्तानों को की) कि, “ऐ मेरे बेटों! अल्लाह ने तुम्हारे लिए यही दीन (धर्म) चुना है, तो इस्लाम (ईश-आज्ञापालन) को अतिरिक्त किसी और दशा में तुम्हारी मृत्यु न हो।” (क्या तुम इबराहीम के वसीयत करते समय मौजूद थे? या तुम मौजूद थे जब याक़ूब की मृत्यु का समय आया? जब उसने बेटों से कहा, “तुम मेरे पश्चात किसकी इबादत करोगे?” उन्होंने कहा, “हम आपके इष्ट-पूज्य और आपके पूर्वज इबराहीम और इसमाईल और इसहाक़ के इष्ट-पूज्य की बन्दगी करेंगे – जो अकेला इष्ट-पूज्य है, और हम उसी के आज्ञाकारी (मुस्लिम) हैं।” वह एक गिरोह था जो गुज़र चुका, जो कुछ उसने कमाया वह उसका है, और जो कुछ तुमने कमाया वह तुम्हारा है। और जो कुछ वे करते रहे उसके विषय में तुमसे कोई पूछताछ न की जाएगी। [कुरआन 2:130-134]

पैगंबर हज़रत युसुफ के बारे मे कुरआन मे आता है कि उन्होने कहा , मेरे रब! तुने मुझे राज्य प्रदान किया और मुझे घटनाओं और बातों के निष्कर्ष तक पहुँचना सिखाया। आकाश और धरती के पैदा करनेवाले! दुनिया और आख़िरत में तू ही मेरा संरक्षक मित्र है। तू मुझे इस दशा से उठा कि मैं मुस्लिम (आज्ञाकारी) हूँ और मुझे अच्छे लोगों के साथ मिला। [कुरआन 12:101] पैगंबर हज़रत ईसा के बारे मे कुरआन मे आता है, “फिर जब ईसा को उनके अविश्वास और इनकार का आभास हुआ तो उसने कहा, “कौन अल्लाह की ओर बढ़ने में मेरा सहायक होता है?” हवारियों ने कहा, “हम अल्लाह के सहायक हैं। हम अल्लाह पर ईमान लाए और गवाह रहिए कि हम मुस्लिम है । [कुरआन 3:52] मौलाना सय्य्द अबुल आला साहब मौदूदि अपनी पुस्तक “इस्लाम का आरंभ” में लिखते है, इस्लाम की शुरुवात उसी वक़्त से है, जब से इंसान की शुरुआत हुई है। इस्लाम के मायने हैं, “खुदा के हुक्म का पालन”। और इस तरह यह इंसान का पैदाइशी धर्म है। क्योंकि खुदा ही इंसान का पैदा करने वाला और पालने वाला है। इंसान का असल काम यही है की वह अपने पैदा करने वाले के हुक्म क पालन करे। जिस दिन खुदा ने सब से पहले इंसान यानि हज़रत आदम और उन की बीवी हज़रत हव्वा को ज़मीन पर उतारा उसी दिन उसने उन्हे बता दिया की देखो: “तुम मेरे बंदे हो और में तुम्हारा मालिक हूँ। तुम्हारे लिए सही तरीका यह है की तुम मेरे बताए हुए रास्ते पर चलो। जिस चीज़ का मै हुक्म दूँ उसे मानो और जिस चीज़ से मै मना करूँ, उससे रुक जाओ। अगर तुम ऐसा करोगे तो मै तुम से राज़ी और खुश रहूँगा और तुम्हें इनाम दूंगा। लेकिन अगर तुम मेरे हुक्म को नहीं मानोगे तो मै तुम से नाराज़ हूंगा और तुम्हें सज़ा दूँगा”। बस यही इस्लाम की शुरुआत थी।

बाबा आदम और अम्मा हव्वा ने यही बात अपनी औलाद को सिखाई। कुछ दिन तक तो सब लोग इस तरीके पर चलते रहे। फिर उन में से ऐसे लोग पैदा होने लगे, जिनहोने अपने पैदा करने वाले का हुक्म मानना छोड़ दिया। किसी ने दूसरों को खुदा बना लिया, कोई खुद खुदा बन बैठा, और किसी ने कहा की मै आज़ाद हूँ। जो कुछ मन मे आएगा करूंगा, चाहे खुदा का हुक्म कुछ भी हो। इस तरह दुनिया मे कुफ़्र की शुरुआत हुई और कुफ़्र का मतलब होता है “खुदा का हुक्म मानने से इंकार करना”।

जब इन्सानो में कुफ़्र बढ़ता ही चला गया और इस की वजह से ज़ुल्म, अत्याचार, बिगाड़ और बुराईया बहुत बढ़ने लगीं तो अल्लाह तआला ने अपने नेक बंदो को इस काम पर लगाया की वे इन बिगड़े हुए लोगों को समझाएँ और उन को फिर से अल्लाह तआला का फर्माबरदार बनाने की कोशिश करें। ये नेक बंदे नबी और पैगंबर कहलाते है। ये पैगंबर कभी थोड़े और कभी ज़्यादा दिनों के बाद दुनिया के अलग अलग देशों और क़ौमों मे आते रहे। ये सब बड़े सच्चे, ईमानदार और पाकीज़ा लोग थे। इन सब ने एक ही मजहब की तालीम दी। और वह यही इस्लाम था। आप ने हज़रत नूह, हज़रत इब्राहिम, हज़रत मूसा और हज़रत ईसा (अलै0) के नाम तो ज़रूर सुने होंगे, ये सब खुदा के पैगंबर थे और इन के अलावा हजारो पैगंबर और भी दुनिया में आए हैं। पिछले कई हज़ार साल की तारीख़ में हमेशा यही होता रहा है कि जब कुफ़्र ज़्यादा बढ़ा, तो किसी बुजुर्ग और महापुरुष को पैगंबर बना कर भेजा गया। उन्होने आकर लोगों को कुफ़्र और नास्तिकता से रोकने और इस्लाम कि तरफ बुलाने कि कोशिश की। कुछ लोग उनके समझाने से मान गये और कुछ अपने कुफ़्र पर अड़े रहे। जिन लोगों ने मान लिया वह मुसलमान कहलाए और उन्होने अपने पैगंबर से बेहतरीन अखलाक और अच्छे आचार सीख कर दुनिया में नेकी और भलाई फैलाना शुरू की। फिर इन मुसलमानो की औलाद धीरे धीरे खुद इस्लाम को भूल कर कुफ़्र के चक्कर में फँसती चली गई और किसी दूसरे पैगंबर ने आकर नए सिरे से इस्लाम को ताज़ा किया। यह सिलसिला जब हजारो साल तक चलता रहा और इस्लाम को बार बार ताज़ा करने के बावजूद फिर भुला दिया गया तो अल्लाह ताला ने सबसे आखिर में हज़रत मुहम्मद को पैगंबर बना कर भेजा। आप ने इसलाम कों ऐसा ताज़ा किया कि आज तक वह क़ायम है और क़ियामत तक क़ायम रहेगा।

हवाला: इस्लाम का आरंभ, मौलाना सय्यद अबुल आला मौदूदि

(लेखन : फ़ारूक़ खान)

”’और उसने आकाश को धरती पर गिरने से रोक रखा है।(65) सूरह हज”” यह केवल एक कलात्मक अलंकारिक विवरण है? जो लोग कुरआन के वर्णन मैं गलती तलाश करते हैं वे वाग्मिता/कलात्मक विवरण एवं खूबसूरत भाषा शैली से अपरिचित होते हैं व अक्सर क़ुरआन के शाब्दिक, (Literal meaning) अर्थ को पकड़कर उसका मनचाहा अर्थ निकाल लेते हैं ऐसा ही कुछ इस आयत के साथ किया गया है…..

हम जानते ही हैं संसार की हर चीज़ एक ख़ास संतुलन को मुसलसल(बारम्बार/Continuoisly अपने अन्दर क़ायम(exist) रखती है(यानी भिन्न तबीयत/quality/propertyहोनें के बवजूद बेजोड़ वस्तुओं में संतुलन और समरूपता) अगर उनका संतुलन बिगड़ जाये तो पृथ्वी पर जीवन ही नष्ट हो जाये….

मगर अल्लाह नें हर चीज़ को एक ख़ास क़ानून(संतुलन) का पाबंद(punctual) बना रखा है जिसकी वजह से इंसान पृथ्वी पर जीवन यापन कर पाता है…अंतरिक्ष में अनगिनत ग्रह/नक्षत्र हैं अगर संतुलन ना हो वह प्रथ्वी से या एक दूसरे से टकरा जायें और जीवन नष्ट हो जाये मगर वह ख़ास क़ानून(संतुलन) के तहत निहायत सेहत के साथ अपने कक्ष पर थमे हुऐ हैं..

…विज्ञान सम्मत है कि हर ग्रह/नक्षत्र/तारा अपनी निश्चित कक्षा में घूर्णन(तैर) कर रहा है जो कभी एक दूसरे को overlap नहीं करता…यही इस आयत की व्याख्या है….”अल्लाह नें आकाश को धरती पर गिरनें से रोक रखा है”’ यानि ग्रह नक्षत्र/तारों को…..(इसका छोटा सा उधाहरण हम उल्का पिण्डों से ले सकते हैं वह किस तरह हमारे वायुमंण्डल में आकर जल जाते हैं संतुलन की वजह से अगर अल्लाह नें हमारा वायुमंण्डल उल्का प्रतिरोधी ना बनाया होता तो प्रथ्वी पर जीवन उन उल्का पिण्डों की मार से नष्ट हो गया होता..)

 

(लेखन : फ़ारूक़ खान)

 

 

इस्लाम के संसार में तेज़ी से फैलनें के संबंध में हमारे बीच एक बड़ी ग़लतफहमी है…ख़ुद मुसलमान इसका प्रचार-प्रसार बड़ चड़ कर करते हैं साथ ही साथ ग़ैर मुस्लिम भी उनका साथ देते हैं….और वह ग़लतफहमी यह है कि आज इस्लाम संसार में सबसे तेज़ी से फैलनें वाला दीन/मज़हब है….Islam is a fastest growing Religion यह बात मुसलमान बहुत फक़्र और घमंड से करके हैं और मानते हैं…दूसरी तरफ ग़र मुस्लिम इदारा भी यही बात कहता है(जैसा आंकड़ों द्वारा फैलाया जाता है).अमरीकन और यूरोपियन इंस्टीट्यूट वह भी यही संसार के सामनें पेश करते हैं कि इस्लाम सबसे तेज़ी से फैलनें वाला मज़हब है(गूगल पर आपको मिल जायेगा)……तो इससे होता यह है कि मुसलमान ख़ुशफहमी में चला जाता है…कि चलो इस्लाम तेज़ी से फैल रहा है..तो कहीं ना कहीं indirectly वह यह समझनें लगता है कि मुझे ज़्यादा कुछ करनें की ज़रूरत नहीं….

जबकि हक़ीकत इससे बिल्कुल अलग है..और एक हक़ीकत यह भी है कि इस्लाम से लोग(जो मुसलमानों के घरों में पैदा होते हैं), तेज़ी से जा भी रहे हैं लेकिन हम इसको नहीं समझ पाते वह इसलिये कि हमारे पास इसका कोई Data/स्त्रोत/प्रमाण नहीं होता..और दूसरा हमनें पहले ही ऐलान कर दिया है कि अगर इस्लाम से फिरोगे तो क़त्ल कर दिये जाओगे..यानि मुरताद(धर्मत्यागी) के जुर्म में मौत की सज़ा के हक़दार बनोगे(जबकि इस्लाम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं यह सिर्फ कुछ कट्टरपंथियों का छोड़ा एक शिगूफा है)…तो क़त्ल का डर लोगों को दिखा दिया जाता है तो जिन लोगों को इस्लाम से फिरना होता है..व घोषणा नहीं करते अंदर ही अंदर वह धर्मत्यागी हो चुके होते हैं…

जब वह बोलते नहीं तो ज़ाहिर है अपने जज़्बात व दीन को लेकर understanding का इज़हार वह शोशल मीडिया के माघ्यम से करते हैं.social media/FB पर आपको कितने सारे ऐसे ग्रुप मिल जायेंगे .. जिनमें ख़ास कर ऐसे मुसलमान जो जन्म से मुसलमान थे..लेकिन बाद में athieist बन गये…

अब सवाल यह उठता है वह मुरताद क्यूं होते हैं??..वह इसलिये कि उनके कुछ जायज़ सवाल होते हैं और उनके जायज़ सवालों के जवाब हम नहीं दे पाते…या उनको सवाल पूंछनें से ही हम रोक देते हैं..डरा धमका देते हैं..”’कि दीन की बातों में सवाल करना हराम है/अक़्ल ना लड़ाया करो/बस जो लिखा है उसे आँख बंद करके फौलो करो”…(क्येंकि हमारे बड़ों नें दीन में अक़्ल के इस्तेमाल को हराम किया हुआ है).. जब हम उनके सवालों के जवाब नहीं दे पाते तो उसके reaction में वह लोग यह मान लेते हैं कि यह चीज़ ही बुरी है यानि इस्लाम ही ग़लत है(बहुत से ऐसे उधाहरण मोजूद हैं)..तो कहीं ना कहीं ग़लती हमारी ही है…लोकिन जो लोग धर्म त्याग रहे हैं उनकी कोई गिनती है ही नहीं लेकिन तेज़ी से लोग इस्लाम में भी आ रहे हैं बस वही देखकर हम ख़ुश हो जाते हैं…..

जबकि आप data देखेगे तो उसमें बिल्कुल विपरीत तथ्य सामनें आते हैं..उधाहरण के लिये इस वक़्त संसार की आबादी 7.4 बिलियन/अरब है जिसमें ईसाइयों की आबादी 31.5% यानि 2.2 अरब व मुसलमान 22% यानि 1.6 अरब..तो इन दोनों की आबादी में जो अंतर निकलता है वह लगभग 75 करोड़ का आता है….

यहीं पर एक चीज़ समझनें की है मुसलमान ईसाईयों के मुकाबले 75 करोड़ कम हैं मुसलमान कहते हैं कि हमारी गिनती नबी सल्ल० से शुरू होती है और ईसाई ईसा अ.स से अपने आपको गिनते हैं….दोनों नबियों अ.स के बीच 650 साल का अंतर है ख़ुद सोचिये इस अंतराल में दोनों की आबादी में उस ज़माने में कुछ लाख का ही अंतर रहा होगा(पहले के जमाने में आबादी कम हुआ करती थी) लेकिन 1400 सालों में यही अंतर 75 करोड़ हो गया तो इससे तो यही नतीज़ा निकलता है कि ईसाई मजहब इस्लाम से ज़्यादा तेज़ी से फैल रहा है…यानि इसाईयत ज़्यादा तेज़ी से फैल रही है वह इसलिये कि वह हमारी तरह ढिडोरा नहीं पीटते ख़ामोशी से अपना काम करते हैं..

स्वंय विचार कीजिये जिन इलाकों में दूसरे धर्मों की मिशनरीज़ काम करती हैं उन इलाकों में सबके घरों में आपको बाईबल/गीत मिल जायेगी नहीं मिलेगा तो क़ुरआन क्योंकि हम किसी ग़ैर मुस्लिम को क़ुरआन देनें को पाप समझते है और यह दलील देते हैं कि क़ुरआन की बे-हुरमती होगी..

जबकि क़ुरआन तो पूरी मानवता के लिये है नकि सिर्फ मुसलमानों के लिये…लिहाज़ा इस ख़ुशफहमी में ना रहकर दीन के लिये काम किया जाये….

लेखन : ख़ुर्शीद इमाम 

ऐसे प्रश्न विषय की सहीह जानकारी ना होने की वजह से ही अपने वजूद मैं आते है …जिसको लेकर स्वयं मुसलमान असमंज्य्स मैं पड़ जाते है जबकि कुरान के ताल्लुक से यह समझना चाहिए असल मैं कुरान है क्या मतलब जो लिखी हुई चीज़ है वही है असल कुरान या फिर कुछ और है …हम जानते ही है जो कुरान नाजिल हुआ था वह नबी सल्ल० के कल्ब मैं नाजिल हुआ या फिर जिब्रील अ स द्वारा वही के तौर पर मिला जिसको नबी सल्ल० ने पढ़ कर सुनाया यह जो पढ़ कर सुनांना था असल मैं तिलावत के ऐतबार से था यानी पढने के ऐतबार से (वह कुरान असल मैं महफूज़ है) जिसको लिखा बाद मैं गया,(लिपि बद्ध किया गया )…..

बाद मैं का अर्थ यह है नबी सल्ल० ने कहा और बाद मैं बहुत सारे लोगो ने याद किया और कुछ लोगो ने उसको लिखा और बाद मैं फिर लिखने की चीज़ें चेंज होती गयी तो लिखने की चीज़ तो चेंज हो सकती है ..लकिन लिखा इसलिए जाता है ताकि कि जो लिखा जा रहा है वह समझ मैं आये तो as long as अगर आप एक ही चीज़ बारम्बार पड़ रहे है ज़ाहिर है उसमे अंतर नहीं होगा …मतलब लफ्ज़(शब्द) अगर एक ही है तो लिखने के तरीके मैं अंतर नहीं होगा …..

 

 उदहारण के तौर पर कुरान अरबिक मैं नाजिल हुआ अब उसका कोई इंग्लिश मैं अनुवाद करे यानी अरबी के शब्द इंग्लिश मैं लिखे मिसाल के तौर पर मैं लिखू “alhamdu lilla he rabbil aalamin” अब मैं ऐसे लिखू तो कोई कहे भाई कुरान तो तब्दील हो गया …नाजिल तो हुआ था अरबी मैं और आप यहाँ इंग्लिश मैं लिख रहे है खुद सोचिये क्या यह तर्क संगत होगा ?? कुरान के शब्द ”अलहम्दु लिल्लाही रब्बिल आलमीन ” यह जो पढ़ा जायेगा यह महफूज़/संरक्षित है मतलब तिलावत के ऐतबार से या जो नाजिल हुआ उस ऐतबार से…. इसको लिखना तो secondary step होगा …मतलब इसको लिखना या इसकी इमेज बना लेना यह सब बाद की चीज़ है .. . अब आते हैं मूल प्रश्न पर तो हज्जाज बिन युसूफ ने जो ज़बर/ज़ेर लगाए उससे पढने मैं तो कोई अंतर नहीं आता है ना ..मतलब शब्द तो आप वही पढ़ रहे है पहले भी “‘अलहम्दु लिल्लाहे रब्बिल …”” पढ़ रहे थे और बाद मैं भी वही “”अलहम्दु लिल्लाहे रब्बिल …”” पढ़ रहे है यह ज़बर/ज़ेर तो इसलिए डाला गया था ताकि जो नॉन अरब हैं जिनकी भाषा ख़ालिस/pure अरबी नहीं है, ….(क्यूंकि अरबी मैं भी बहुत तरीके की अरबी होती है अलग अलग जगहों पर अरबी पढने का अंदाज़ बदल जाता है जैसे खुद भारत मैं हिंदी पढने और बोलने का अंदाज़ दुसरे राज्यों मैं जाकर बदल जाता है ), तो यह ensure/पक्का करने के लिए कि एक ही चीज़ समझा जाये इसलिए ज़ेर/ज़बर को लगाया गया …पढ़ा जो जायेगा उस ऐतबार से कुरान महफूज़ है(पढने के ऐतबार से)…अलहम्दु लिल्ल्हाहे रब्बिल ..”‘ यह महफूज़ है ..इसमे तब्दाली/बदलाव नहीं हो सकता …इस ही तरह पूरे कुरान मैं अब कोई किसी शब्द को खीच कर पढ़े या धीरे पढ़े उससे भी कोई अंतर नहीं पड़ता बोलने मैं शब्द वही सामान होने चाहिए अब कोई लिख रहा है लिखने मैं कोई जरे/ज़बर लगा दे.. दो तीन और निशान/arrow/चिन्ह बना दे तो उससे भी कोई अंतर नहीं पड़ता(बात सिर्फ उच्चारण से संबंधित होती है)…असल कुरान वोह नहीं है जिसकी महफूज़ की बात की गयी असल कुरान वोह है जो नबी सल्ल० पर नज़िल किया गया और नबी सल्ल ने पढ़ा जो पढ़ कर आगे फैल रहा है वह कुरान है जो महफूज़ है …


 रही दूसरी बात यह(जैसा प्रश्न मैं है) कि अल्लाह ने पहले वादा किया या बाद मैं ..????

अल्लाह का जो काम होता है कोई भी अम्र जो अल्लाह का इस दुनिया मैं नाफ़िज़ होता है वह सबब/असबाब/कारण से होता है …कुरान से पहले जो किताबें?अल्लाह से सन्देश/सहीफे इस दुनिया मैं आये ..उस वक़्त संसार मैं Transportation/यातायात और communication/संचारण के ऐतबार से इतना progress/प्रगति/विकास नहीं हुआ था कोई भी चीज़ या कोई भी सन्देश पूरे संसार मैं फैल सके या महफूज़/संरक्षित रह सके कुरान के नाजिल होने के बाद वह सबब/कारण दुनिया मैं आ गए यानी वोह means of transportation/means of communication हो गया कि कोई सन्देश दुनिया भर मैं फैल सके और वह कारण वजूद मैं आ गए जिससे सन्देश preserve किया जा सके हिफाज़त की जा सके जैसे पेपर/प्रिंटिंग प्रेस/इंटरनेट/कंप्यूटर … ..तो अल्लाह हिफाज़त करेगा का मतलब यह है कि अल्लाह वह सबब/कारण वजूद मैं ला देगा जिससे हिफाज़त हो सकेगी….

(लेखन : फ़ारूक़ खान)

सुन्नी और शिआ समुदायों की ‘मूल-उक्ति’ (कलिमा)–‘ला इलाह इल्ल्-अल्लाह मुहम्मद्-उर-रसूल-अल्लाह’ एक ही है। दोनों, जहां अवसर होता है एक साथ, एक इमाम के पीछे पंक्तिबद्ध होकर, नमाज़ पढ़ते हैं। एक साथ हज करते हैं। एक ही कुरआन का पाठ (तिलावत) करते हैं। परलोक जीवन में स्वर्ग (जन्नत) या नरक (जहन्नम) में एक समान विश्वास रखते हैं। ईश्वर की पूजा-उपासना में किसी को साझी-शरीक (शिर्क) नहीं करते।

विभेद : दोनों समुदायों में विभेद की अस्ल, ‘धार्मिक’ नहीं बल्कि एक तरह से ‘राजनीतिक’ स्तर की है। हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के देहावसान के तुरंत बाद आप (सल्ल॰) के उत्तराधिकारी की नियुक्ति के बारे में मुस्लिम समुदाय में दो मत उत्पन्न हो गए। आप (सल्ल॰) के ख़ानदान वालों में से अधिकतर का विचार था कि नेतृत्व और शासन हज़रत अली (रज़ि॰) को मिलना चाहिए। (विदित हो कि वह ज़माना पूरे विश्व में बादशाहत का ज़माना था जिसमें सत्ता शान ख़ानदान के ही किसी आदमी को हस्तांतरित होता था। और हज़रत अली (रज़ि॰), पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के चचाज़ाद भाई थे)। बाक़ी लोगों का मत था कि इस्लाम की प्रकृति बादशाहत की नहीं, जनमतीय है (जिसे आजकल जनतांत्रिक, डेमोक्रैटिक कहा जाता है)। 
इसलिए गुणवत्ता, अनुभव व क्षमता के आधार पर इस्लामी शासक का चयन व स्थापन आम जनता करेगी। फिर हुआ यह कि बहुमत से हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के पहले उत्तराधिकारी हज़रत अबूबक्र (रज़ि॰), उनकी मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी हज़रत उमर (रज़ि॰), उनकी शहादत के बाद उनके उत्तराधिकारी हज़रत उस्मान (रज़ि॰) तथा उनकी शहादत के बाद उनके उत्तराधिकारी हज़रत अली (रज़ि॰) नियुक्त हुए।

हज़रत अली (रज़ि॰) के समर्थक गिरोह को ‘शिआने-अली’ कहा जाने लगा। बाद के वर्षों और सदियों में शिआ मत के विचारों में (राजनीतिक आयाम के साथ-साथ) कुछ वैचारिक, आध्यात्मिक तथा धार्मिक आयाम भी जुड़ गए और इतिहास के सफ़र में ‘शिआ’ एक विधिवत सम्प्रदाय बन गया। इससे पहले शिआ नाम का कोई सम्प्रदाय न था। ‘सुन्नी’नामक कोई सम्प्रदाय भी सिरे से था ही नहीं।

बीसवीं शताब्दी में पहचान के लिए वे लोग सुन्नी कहे जाने लगे जो शिआ मत के न थे। विश्व भर में लगभग 90 प्रतिशत मुसलमान इसी मत के हैं। भारत में अंग्रेज़ी शासनकाल में ‘फूट डालो और शासन करो (Divide and Rule) का चलन ख़ूब बढ़ाया गया और स्वतंत्रता के बाद कुछ पार्टियों और तत्वों ने अपने-अपने राजनीतिक हित के लिए मुसलमानों के बीच इस मामूली से विभेद को बढ़ावा दिया। अतः सुन्नी व शिआ सम्प्रदायों में टकराव की भी घटनाएं कुछ क्षेत्रों और कुछ नगरों में रह- रहकर घटती रहीं। नादान मुस्लिम जनता (शिआ और सुन्नी आबादी) छिपे हुए शत्रुओं की साज़िश का, रह-रहकर शिकार होती रही। लेकिन दोनों सम्प्रदायों के अनेक अक़्लमन्द, निष्ठावान व प्रबुद्ध रहनुमाओं की कोशिशों से स्थिति में बदलाव और बड़ी हद तक सुधार आ चुका है। वास्तव में इसका श्रेय ‘इस्लाम’की शिक्षाओं को, इस्लाम के मूलाधार और मूल धारणाओं तथा मूल-स्रोतों (कु़रआन, हदीस) को जाता है।

इस व्याख्या के बाद एक बहुत बड़ा प्रश्न है जो अपना उत्तर चाहता है। यह वर्तमान वैश्वीय राजनीतिक परिदृश्य (Global political scenario) में, और विशेषतः कुछ शक्तिशाली पाश्चात्य शक्तियों (Western political players) के ख़तरनाक ‘न्यू वल्र्ड ऑर्डर’ की उन नीतियों के परिप्रेक्ष्य में बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है जिनके तहत वे शक्तियां मुस्लिम जगत के कई देशों में बदअमनी, झगड़े-मारकाट, फ़ितना-फ़साद, रक्तपात, विद्वेष, अराजकता और गृह-युद्ध (Civil war) फैलाकर वहां अपना राजनीतिक, सामरिक, वित्तीय व आर्थिक प्रभुत्व और नव-सामराज्य (Neo-imperialism) स्थापित करना तथा उन देशों के प्राकृतिक संसाधनों को लूटना, लूटते रहना चाहती हैं। इसके लिए वह अनेक देशों में ‘शिआ-सुन्नी’टकराव व हिंसा का वातावरण बनाती हैं। आम लोग जो इस टकराव और हिंसा की वास्तविकता से अनजान हैं (और समाचार बनाने, कहानियां गढ़ने, झूठ जनने और इस सारे महा-असत्य को फैलाने का सूचना-तंत्र-Media Machinery-उन्हीं शक्तियों के अधीन होने के कारण) उनके मन-मस्तिष्क में सहज रूप से यह प्रश्न उठता है कि जब शिआ-सुन्नी एक ही धर्म के अनुयायी, एक ही ‘विशालतर मुस्लिम समुदाय’हैं तो इराक़, सीरिया, ईरान,सऊदी अरब, बहरैन, यमन, पाकिस्तान आदि मुस्लिम देशों में शिओं का शोषण, सुन्नियों के साथ दुर्व्यहार, दोनों का एक-दूसरे की आबादियों, मुहल्लों, मस्जिदों में बम-विस्फोट करना, आदि क्यों है?

इसका उत्तर यह है कि वास्तव में यह सब उन्हीं बाहरी शक्तियों की विघटनकारी ख़ुफ़िया एजेंसियों के करतूत हैं जो मुस्लिम-देशों पर अपने प्रभुत्व, शोषण और लूट का महाएजेंडा (Grand agenda) रखती हैं। पूरा सूचना-तंत्र (Media) या तो उन्हीं का है या उनसे अत्यधिक प्रभावित या परोक्ष रूप से उनके अधीन है, अतः विश्व की आम जनता को न तो हक़ीक़त का पता चल पाता है न उन शक्तियों के करतूतों और अस्ल एजेंडे का।

यह है उस शिआ-सुन्नी विभेद की वास्तविकता जो बहुत ही सतही (Superficial) है; और यह है उस शिआ-सुन्नी विद्वेष की वास्तविकता जो कुछ चुट-पुट घटनाओं व नगण्य अपवादों (Exceptions) को छोड़कर लगभगपूरी तरह नामौजूद (non-existant) है लेकिन इस्लाम के शत्रु और मुस्लिम समुदाय के दुष्चिंतक लोग इसमें अतिशयोक्ति (Exaggeration) करके, इस्लाम की छवि बिगाड़ने तथा मुस्लिम समुदाय के प्रति चरित्र हनन व बदनामी का घोर प्रयास करते रहे हैं। और दूसरे तो दूसरे, स्वयं बहुत से नादान मुसलमान भी इस प्रयास से प्रभावित हो जाते हैं। नादानी के चलते, अविश्वास व दुर्भावना के गर्म वातावरण का तापमान, साज़िशी लोग जब कुछ और बढ़ाकर कोई चिनगारी भड़का देते हैं तो वह देखते-देखते धधक कर शोला बन जाती है। वर्तमान स्थिति यह है कि मुस्लिम समुदाय इन साज़िशों को समझ कर, सचेत व आत्मसंयमी हो गया है।

(लेखन : फ़ारूक़ खान)

पहले यह देखें क़ुरआन क्या कहता है……””ऐ लोगों अपने पालने वाले से डरो जिसने तुम सबको (सिर्फ) एक शख्स से पैदा किया और (वह इस तरह कि पहले) उनकी बाकी मिट्टी से उनकी बीवी (हव्वा) को पैदा किया और (सिर्फ़) उन्हीं दो (मियॉ बीवी) से बहुत से मर्द और औरतें दुनिया में फैला दिये और उस ख़ुदा से डरो जिसके वसीले से आपस में एक दूसरे से सवाल करते हो और क़तए रहम से भी डरो बेशक ख़ुदा तुम्हारी देखभाल करने वाला है (1) सूरह निसा आयत:1

अब इस आयत में कहीं भी यह बात नहीं आई कि अल्लाह नें अपने बंदों में भाई बहनों को आपस में शादी करनें आदेश दिया हो असल में यहां पर आमतौर पर सिर्फ अंदाज़ा लगाया जाता है यानि लोग आम तौर पर अंदाज़ा लगाते हैं assume करते हैं कि जब आदम अ.स थे तो उनके बाद कोई तो तरीक़ा रहा होगा जिससे नस्ल आगे बड़ी हो…तो जूंकि जवाब कोई नहीं रहता है इसलिये यह अंदाज़ा लगा लिया जाता है या मान लिया जाता है कि हो सकता है कि उस वक़्त के जो लोग रहे होंगे उन्होंनें आपस में शादी की होगी…

अगर बात अंदाज़े की ही हो तो उस लिहाज़ से तो यहां पर दो संभावनायें बनती हैं पहली संभावना कि शायद यह अंदाज़ा सही हो (आपस में शादी करनें वाला)/ या यही हुआ हो दूसरी संभावना कि ऐसा (आपस में शादी), हुआ ही ना हो यानि कोई दूसरा तरीक़ा/संभावना रहा हो नस्ल को आगे बड़ानें का…


चूँकि क़ुरआन व हदीस इस मामले में ख़ामोश है व साइंस भी अभी तक इस संबंध में कोई ठोस प्रमाण नहीं दे पाया है तो यह एक Suspicious (शंकास्पद) विषय बन जाता है..यनि यहां कुछ भी संभव(possible) है /कोई भी possibility हो सकती है……मतलब यह भी हो सकता है कि उस वक़्त आपस में शादियां हुंई हों व उससे नस्ल आगे बड़ी हो व यह भी हो सकता है कि ऐसा ना हुआ हो व कुछ और तरीक़ा रहा हो नस्ल को आगे बड़ाने का……

दूसरा तरीक़ा(आपस में शादियां ना हुई हों) इसलिये भी संभव है कि हम जानते हैं अल्लाह नें हज़रत आदम अ.स बिना माँ/बाप के पैदा किया था और हज़रत ईसा अ.स भी बिना बाप के पैदा किये गये(बक़ौल क़ुरआन).. तो हो सकता है कि इसी तरह अल्लाह का कोई और निज़ाम/system रहा हो…..

और पहली संभावना भी हो सकती है कि आपस में शादी करनें का हुक्म हुआ हो..क्योंकि ज़ाहिर सी बात है कि दीन में जो शरियत होती है या जो क़ानून का हिस्सा होता है वह time to time थोड़ा बहुत तब्दील(change) होता रहता है…

शुरू के वक़्त में शरियत तो नहीं थी सिर्फ humanity थी यानि क़ानून तो बिल्कुल नहीं था ..ज़ाहिर सी बात है जब कोई समाज बनता है या society बनती है तब ही क़ानून का कोई वजूद रह जाता है जहां पर कोई समाज ही ना हो वहां क़ानून का कोई औचित्य नहीं….जैसा कि आज हर धर्म की आपनी शरियत/क़ानून है….

लिहाज़ा अगर यह possibility (आपस में शादी) रही हो तो यह उस वक़्त के हिसाब से सही रहा हो…कुछ भी संभव है हम दावे के साथ नहीं कह सकते कि ऐसा(आपस में शादी)

लेकिन मेरा कहना यह है  क़ुरआन तो कहीं भी यह नहीं कहता कि अल्लाह नें भाई/बहन को आपस में शादी करनें का हुक्म दिया हो जबकि क़ुरआन नें तो एक सीधी सी guideline दे दी है (सूरह निसा आयत 15-16) में कि किन से शादी जायज़ है और किन से नहीं और उस ही आदेश के हिसाब से हमारी शरियत/क़ानून व सोच है….

अब उस वक़्त क्या हुआ अल्लाह ही बेहतर जानता है हम अपनी अक़्ल व क़यास पूर्वानुमान(Assumption) से किसी ठोस नतीजे (conclusion) पर नहीं पहुंच सकते…..

Allah knows best…

(लेखन : फ़ारूक़ खान)

यह एक आम धारणा है जो संसार के समस्त मुसलमानों के बीच आम है यानि एक ऐसा शख़्स जो मदरसे में पढ़ाई पूरी कर आलिम की सनद/डिग्री लेता है..सामान्यतः ”आलिम” माना जाता है…और उनको ऐसा दर्जा दिया जाता है कि उनके विपरीत जाकर तर्क/बुद्धी/विवेक का प्रयोग मानो हराम जैसा हो..उनकी कही बात मानो जैसे इस्लाम की कसोटी व आख़िरी बात हो (जो धारणा मुसलमानों में आम हो चुकी है)….ख़ैर..जबकि क़ुरआन की तरफ नज़र करनें पर ”आलिम” का कुछ अलग ही अर्थ मिलता है..हम क़ुरआन द्वारा बताया गया ”आलिम” का अर्थ आज के मुसलमानों में प्रचलित अर्थ से बिल्कुल विपरीत पाते हैं…अब प्रश्न उठता है फिर क़ुरआन नें किस संदर्भ में उल्मा शब्द का प्रयोग किया है (उल्मा-आलिम का बहुवचन है)..

उल्मा शब्द मूल धातु(root word) ऐंन,लाम,मीम ( ﻉ ﻝ ﻡ ) से बना है जो क़ुरआन में 854 बार सामान्य ज्ञान(general sense of Knowledge) के लिये प्रयोग हुआ है..पूरे क़ुरआन में कहीं भी यह शब्द मात्र धार्मिक ज्ञान के लिये प्रयोग में नहीं आया बल्कि हर क्षेत्र की जानकारी/ज्ञान के लिये ”इल्म/ज्ञान” प्रयोग हुआ…उधारहण के लिये..क़ुरआन 26:34 में ”अलीम”(जादू के क्षेत्र में माहिर लोगों के लिये) शब्द का प्रयोग हुआ है (जिसकी मूल धातु “”इल्म”” है)

”’ﺎﻝَ ﻟِﻠْﻤَﻠَﺈِ ﺣَﻮْﻟَﻪُ ﺇِﻥَّ ﻫَٰﺬَﺍ ﻟَﺴَﺎﺣِﺮٌ ””ﻋَﻠِﻴﻢ”” ”’ उसने अपने आस-पास के सरदारों से कहा, “निश्चय ही यह एक बड़ा ही प्रवीण जादूगर है (34) सूरह शूरा”’क़ुरआन में दो जगह उल्मा(आलिम का बहुवचन) शब्द आया है…

1).. ”’ क्या तुमने नहीं देखा कि अल्लाह ने आकाश से पानी बरसाया, फिर उसके द्वारा हमने फल निकाले, जिनके रंग विभिन्न प्रकार के होते है?और पहाड़ो में भी श्वेत और लाल विभिन्न रंगों की धारियाँ पाई जाती है, और भुजंग काली भी (27) और मनुष्यों और जानवरों और चौपायों के रंग भी इसी प्रकार भिन्न हैं। अल्लाह से डरते तो उसके वही बन्दे हैं, जो बाख़बर(उल्मा/ज्ञान वाले) है। निश्चय ही अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, क्षमाशील है (28) सूरह फातिर”’

उपर दी गयी दो आयतो में अल्लाह लोगों को चिंतन/मनन/विचार के लिये आमंत्रित करता हैै….जैसे…                                                                      A)वर्षा बननें की प्रक्रिया व धरती पर उसका बरसना(जिसका अध्यन eteorology या hydrology कहलाता है)                                                B) विभिन्न प्रकार व रंग के फलों का पैदा होना(जिसका अध्यन agriculture,farming, zoology, botany कहलाता है)                        C) पर्वतों से संबधित (जिनका अध्यन Geology, Geography …)        D) विभिन्न रंग रूप के मानवों का होना ( Phylogenetics)..                E) इसी प्रकार जानवरों का होना( Scientists, Ecologist) आगे आयत कहती है..जो लोग पूर्ण ज्ञान(उल्मा शब्द का प्रयोग हुआ) रखते हैं वही लोग अल्लाह का डर रखनें वाले हैं…या सीधे शब्दों में कहें तो जो लोग meteorology, hydrology,agriculture, farming, zoology, botany, geology,phylogenetics, ecology and science का ज्ञान रखते हैं वही इस आयत में उल्मा कहे गये…

2)दूसरी जगह क़ुरआन कहता है..”’ क्या यह उनके लिए कोई निशानी नहीं है कि इसे बनी इसराईल के विद्वान जानते है? (197) …यहां बनी इसराईल की कौम के उलमा को संबोधित किया गया..

निष्कर्श: किसी भी विषय का ज्ञान रखनें वाले को आलिम कहा जाता है और पोस्ट का उद्देश्य यह संदेशा देना भी है कि कुरआन सिर्फ दीन सीखनें सिखानें की ही बात नहीं करता बल्कि दुनियावी/सांसारिक इल्म हासिल करनें पर भी ज़ोर देता है….

(लेखन : खुर्शीद इमाम)

इसका सीधा सा उत्तर यह है कि हमारा नजरिया।।। हम क्या देखना चाहते हैं और क्या समझना चाहते हैं और हमें क्या दिखाया जा रहा है…क्या जो हमें दिखाया जा रहा है वह 100% सही है??

मानव इतिहास ख़ून खराबे रक्तपात, विद्वेष, अराजकता से भरा पड़ा है जो आज भी जारी है विभिन्न धर्मों/नस्लों/देशों/समूहों द्वारा इसके बहुत सारे उधाहरण हैं अगर लिखूंगा तो पोस्ट बहुत लंबी हो जायेगी…..

लेकिन वही सवाल फिर आतंकवाद सिर्फ इस्लाम धर्म के अनुयाइयों के साथ ही ख़ास क्यों????यह सच है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता चाहे वह किसी भी धर्म/समुदाया से जोड़ा जाये फिर भी….

इस व्याख्या के बाद एक बहुत बड़ा प्रश्न है जो अपना उत्तर चाहता है। यह वर्तमान वैश्वीय राजनीतिक परिदृश्य (Global political scenario) में, और विशेषतः कुछ शक्तिशाली पाश्चात्य शक्तियों (Western political players) के ख़तरनाक ‘न्यू वल्र्ड ऑर्डर’ की उन नीतियों के परिप्रेक्ष्य में बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है जिनके तहत वे शक्तियां मुस्लिम जगत के कई देशों में बदअमनी, झगड़े-मारकाट, फ़ितना-फ़साद, रक्तपात, विद्वेष, अराजकता और गृह-युद्ध (Civil war) फैलाकर वहां अपना राजनीतिक, सामरिक, वित्तीय व आर्थिक प्रभुत्व और नव-सामराज्य (Neo-imperialism) स्थापित करना तथा उन देशों के प्राकृतिक संसाधनों को लूटना, लूटते रहना चाहती हैं। यह न कहियेगा कि पाश्चात्य शक्तियां बहुत दयालुं हैं और वह किसी पर ज़ुल्म करनें की सोच भी नहीं सकतीं ….

अब इसकी प्रतिक्रिया में जो घटित होता है उसको सीधे मुसलमानों से जोड़ दिया जाता है और विश्व के सामनें ऐसा परिवेश बनाया जाता है कि मुसलमान ही इस फसाद की जड़ हैं और उनको सीधे आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है… यह सच है कि कुछ गुमराह मुसलमान ऐसी परिस्तिथी का फायदा उठाकर आपना उल्लु सीधा करते हैं और दोष पूरी क़ौंम पर आता है..यह कहावत यूं ही नहीं कह दी गयी ”एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है””….यहां एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या किसी ने ख़ुद वहां जाकर देखा कि हक़ीकत में वहां क्या हो रहा है या हमें जो दिखाया गया बस उसी को सच की पराकाष्ठा समझ कर यथार्त समझ लिया??? प्रमाण प्रत्यक्ष का होता है जो ख़ुद देखा गया हो न कि किसी की बनाई झूटी कहानी जो सच बनाकर परोसी गयी हो… दूसरी तरफ़ आम लोग जो इस टकराव और हिंसा की वास्तविकता से अनजान हैं (और समाचार बनाने, कहानियां गढ़ने, झूठ जनने और इस सारे महा-असत्य को फैलाने का सूचना-तंत्र-Media Machinery-उन्हीं शक्तियों के अधीन होने के कारण) उनके मन-मस्तिष्क में सहज रूप से यह प्रश्न उठता है कि फिर इराक़, सीरिया, ईरान, सऊदी अरब, बहरैन, यमन, पाकिस्तान आदि मुस्लिम देशों में आतंकवाद क्यूं???

इसका उत्तर यह है कि वास्तव में यह सब उन्हीं बाहरी शक्तियों की विघटनकारी ख़ुफ़िया एजेंसियों के करतूत हैं जो मुस्लिम- देशों पर अपने प्रभुत्व, शोषण और लूट का महाएजेंडा (Grand agenda) रखती हैं। पूरा सूचना-तंत्र (Media) या तो उन्हीं का है या उनसे अत्यधिक प्रभावित या परोक्ष रूप से उनके अधीन है, अतः विश्व की आम जनता को न तो हक़ीक़त का पता चल पाता है न उन शक्तियों के करतूतों और अस्ल एजेंडे का। और जो वह दिखाते हैं वही सच मान लिया जाता है और इस बात पर दूसरे धर्म के बुद्धीजीवियों का भी एक ही मत है…

लिहाज़ यह कहना कि हर आतंकवादी ही मुसलमान क्यों सिर्फ एक छलावा है जो लोंगों के मन मस्तिष्क में पूरी तरह बैठा दिया गया है क्योंकि एक धर्म ही ऐसी चीज़ है जिसके बल पर आप जिसे चाहें अपने आडंबर में ले सकते हैं….स्वयं विचार कीजिये किसी दूसरे धर्म का अनुयायी कोई अनैतिक या मानवता के विरुद्ध कोई अपराध करे तो उसको ”’उग्रवादी”’ कहा जाता\ है और वही अनैतिक /मानवता के विरूद्ध कार्य कोई मुस्लिम करे तो उसको ”निस्वार्थ” भाव से आतंवादी घोषित कर दिया जाता है…क्यूं.???क्या मुसलमान द्वारा किया गया अपराध किसी Special/ख़ास Category श्रेणी में आता है..क्या वह दूसरे ग्रह का प्राणी है या दूसरे ग्रह से आया है…यह Double standard मुसलमान के साथ ही क्यों …ज़ाहिर सी बात है एक ख़ास रणनीति के तहत सूचना-तंत्र (Media) द्वारा रचा गया एक महा एजेंडा जिसका अंत होंना मुश्किल सा लगता है…

उपर दिये गये सारे प्रश्न अपना उत्तर चाहते है लेकिन लगता नहीं उनका किसी के पास उत्तर हो…….??

(लेखन : फ़ारूक़ खान)

 जिस आयत पर आक्षेप किया जाता है उसका सही अनुवाद यह है। “ईमानवालों को चाहिए कि वे ईमानवालों के विरुद्ध काफिरों को अपना संरक्षक मित्र न बनाएँ, और जो ऐसा करेगा, उसका अल्लाह से कोई सम्बन्ध नहीं…” [सूरह आले इमरान, आयत 28]

इसी तरह की एक आयत और है… ‘‘ऐ इमान लानेवालों (मुसलमानों) तुम ‘यहूदियों’ और इसार्इयों’ को मित्र न बनाओं। ये आपस मे एक दूसरे के मित्र हैं। और जो कोर्इ तुममें से उनको मित्र बनाएगा, वह उन्ही मे से होगा। नि:सन्देह अल्लाह जुल्म करनेवालों को मार्ग नही दिखाता।’’ (कुरआन, सूरा-5, आयत 51) इस आयत में जो अरबी शब्द “अवलिया” आया है। उसका मूल “वली” है, जिसका अर्थ संरक्षक है, ना कि साधारण मित्र। अंग्रेजी में इसको “ally” कहा जाता है।

जिन काफिरों के बारे में यह कहा जा रहा है उनका हाल तो इसी सूरह में अल्लाह ने स्वयं बताया है। सुनिए। َ

“ ऐ ईमान लानेवालो! अपनों को छोड़कर दूसरों को अपना अंतरंग मित्र न बनाओ, वे तुम्हें नुक़सान पहुँचाने में कोई कमी नहीं करते। जितनी भी तुम कठिनाई में पड़ो, वही उनको प्रिय है। उनका द्वेष तो उनके मुँह से व्यक्त हो चुका है और जो कुछ उनके सीने छिपाए हुए है, वह तो इससे भी बढ़कर है। यदि तुम बुद्धि से काम लो, तो हमने तुम्हारे लिए निशानियाँ खोलकर बयान कर दी हैं।” [सूरह आले इमरान, आयत 118 ]

आप ही बताईये, ऐसे लोगों से किस प्रकार मित्रता हो सकती है? यह तो एक स्वाभाविक बात है कि जो लोग हमसे हमारे धर्म के कारण द्वेष करें और हमें हर प्रकार से नुकसान पहुंचाना चाहें उन से कोई भी मित्रता नहीं हो सकती | यह बात तो हर धर्म के लोंगों पर लागू होती है जोकि एक साधाहरण सी नैतिक बात है…(अगर मुसलमान ही ख़ुद दूसरे धर्म के लोंगों का बुरा करनें पर उतर आयें तो कौन उनसे मित्रता करना पसंद करेगा… और यह आयत ख़ास एक वक़्त में ख़ास लोंगों के लिये कही गई जो मुसलमानों को नुक्सान पहुंचानें के लिये हमेशा नये नये प्रपंच रचते रहते थे ना कि भूत वर्तमान व भविष्य के सारे यहूदी व ईसाईयों के लिए… 

कुरआन में गैर धर्म के भले लोगों से दोस्ती हरगिज़ मना नहीं है।

सुनिए, कुरआन तो खुले शब्दों में कहता है। “ अल्लाह तुम्हें इससे नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और न तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला। निस्संदेह अल्लाह न्याय करनेवालों को पसन्द करता है अल्लाह तो तुम्हें केवल उन लोगों से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की। जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम है। ” [सूरह मुम्ताहना; 60, आयत 8-9]

और सुनिए َ  “ ऐ ईमानवालो! अल्लाह के लिए खूब उठनेवाले, इनसाफ़ की निगरानी करनेवाले बनो और ऐसा न हो कि किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम इनसाफ़ करना छोड़ दो। इनसाफ़ करो, यही धर्मपरायणता से अधिक निकट है। अल्लाह का डर रखो, निश्चय ही जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह को उसकी ख़बर हैं।” [सूरह माइदह 5, आयत 8 ]

अल्लाह कभी लोगों को नहीं बाँटते। सब अल्लाह के बन्दे हैं। लोग अपनी मूर्खता और हठ से बट जाते हैं। जो लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते वह स्वयं अलग हो जाते हैं। इसमें अल्लाह का क्या दोष? इन आयात से स्पष्ट होता है कि कुरआन सभी गैर मुस्लिमों से मित्रता करने से नहीं रोकता।

(लेखन : फ़ारूक़ खान)

 कलमा कोई मन्त्र की तरह की चीज़ नहीं है कि वो मन्त्र पढ़ने से कुछ हो जाता है, बल्कि शहादा यानि गवाही देना, इकरार करना कि अल्लाह के सिवा कोई रब नहीं और मुहम्मद (सल्ल०) उसके रसूल हैं, यह इस्लाम और कुरआन का सार है, कुरआन के हर पेज पर यही तो साबित किया जा रहा है. दीन (धर्म) की हर बात इन्ही दो बुनियादी चीज़ों को मानने के बाद शुरू होती है, बाकि हर चीज़ इनके बाद है. 

 अगर फ़र्ज़ करें कि कोई रब ही नहीं है तो उसकी तरफ से कोई किताब भी नहीं हो सकती और अगर हज़रत मुहम्मद (स) रसूल नहीं हैं तो उनकी तरफ से पेश की हुई कोई चीज़ कुछ एहमियत ही नहीं रखती. 

 इसलिए सिर्फ़ अरबी में शहादा ज़ुबान से बोल लेने से कोई मुसलमान नहीं होता बल्कि इन दो बातें को मानने से मुसलमान होता है, इसीलिए जब अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के सामने कोई इस्लाम क़ुबूल करता था तो अक्सर वो यह नहीं कहता था कि मुहम्मदुर्रसूल अल्लाह ”मुहम्मद (सल्ल.) अल्लाह के रसूल हैं” बल्कि वो कहता था कि ला इलाहा इल्लल्लाह अन्ता रसूलअल्लाह ”अल्लाह के सिवा कोई रब नहीं और आप उसके रसूल हैं” यानि ”मुहम्मद” (सल्ल.) की जगह ”आप” शब्द बोलता था. 

और इसीलिए कुरआन में भी सारा ज़ोर इन बातों को मनवाने पर है ना कि ज़ुबान से बुलवाने पर, कुरआन में जितनी भी अकली, ऐतिहासिक और साइंसी दलीलें दी गई है वो सब मनवाने के लिए हैं ना कि बुलवाने के लिए. इसलिए ग़ौर करें तो पूरा कुरआन ही जो है वो ”ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदु’र्रसूलुल्लाह” ही तो है. 

ऐसा भी नहीं है ये शब्द कुरआन में हैं ही नहीं कलमे के यही शब्द कुरआन में बहुत बार आये हैं, मिसाल के लिए देखये -”ला इलाहा इल्लल्लाह” के लिए = सूरेह नं 37 आयत 35 / सूरेह नं 47 आयत 19 ”अन्ता या मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह” के लिय = सूरेह 63 आयत 1 / सूरेह 48 आयत 29.

आपका दूसरा सवाल है कि नमाज़ का तरीका (पद्धति) कुरआन में क्यों नहीं ?

देखिये नमाज़, हज, ज़कात, उमरा, क़ुरबानी वगैरह ये सब चीजें मक्का में पहले ही से मौजूद थी, ये सारे काम वहां कुरआन नाज़िल होने से पहले ही किये जा रहे थे. इसकी वजह है वहां इब्राहीम अलै० के दीन (धर्म) का कुछ हिस्सा बाकि था. इसलिए वो इन सब चीज़ों को जानते थे यही वजह है कि कुरआन ने इन सब चीज़ों के सिर्फ नाम लिए तरीक़ा नहीं बताया, सिर्फ़ नाम लेने से ही लोग समझ गए कि बात किस चीज़ की हो रही है.

दूसरी बात ये है कि ये सब चीज़े प्रेक्टिकल करने की हैं इसलिए इनमे जो कमी रह गई थी वो अल्लाह के रसूल सल्ल० ने 23 साल तक प्रेक्टिकल कर के ही दिखाई. इसके बाद ज़रूरत ही नहीं थी कि कुरआन इन सब चीज़ों को करने का तरीक़ा बताता. यही वजह है कि कुरआन में इन चीज़ों को करने का तरीक़ा बयान नहीं हुआ है.

इसको आसानी से समझाने के लिए आज के दौर से एक मिसाल दे देता हूँ. फर्ज़ करें कि अगर आज कुरआन नाज़िल होता और उसे ये हुक्म देना होता कि हर सुबह हम सब को अपने 10 कॉन्टेक्ट को सलाम लिख कर वाट्सएप मेसेज करना है. तो कुरआन को सिर्फ इतना ही कहने की ज़रूरत थी कि ये वाट्सएप मेसेज करना है. वाट्सएप क्या होता है, कैसे इनस्टॉल होता है कैसे अकाउंट बनाते हैं ये सब बातें उसे बताने की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि आम तौर पर लोग इसे जानते हैं और जो नहीं जानते वो दूसरों से पूछ कर चलाना सीख लेते हैं.

आख़री बात ये है कि कुरआन मुकम्मल किताब है का मतलब ये नहीं है कि उसमे हर चीज़ की पूरी तफसील (विवरण) है, बल्कि इसका मतलब ये है कि अब दीन की हिदायत (मार्गदर्शन) के लिए किसी और किताब के नाज़िल होने की ज़रूरत नहीं है. अब इसके बाद आइन्दा आने वाले लोगों में से जिसे हिदायत लेनी हो उसके लिए कुरआन काफी है.

(लेखन :मुशर्रफ़ अहमद)

 सबसे पहले तो जान लीजये कि इस्लाम या मुसलमानों में गैर मुसलमानों पर इस्लाम का प्रभुत्व स्थापित करने की कोई रणनीति ना कभी थी और ना है और ना कभी होगी, क्यूँ कि इस्लाम में ऐसा कोई हुक्म ही नहीं है. ये गलत फहमियां कुछ दंगाई आतंवादियों की फैलाई हुई हैं. गैर मुस्लिमों के बारे में इस्लाम में मुसलामनों पर बस इतना काम फर्ज़ किया है कि गैर मुस्लिमों को मुहब्बत इज्ज़त और समझदारी के साथ उनके रब का जो पैगाम उनके पास है वो पहुंचा देना है. क्यूँ कि ये पैगाम गैर मुस्लिमों का हक भी है और अमानत भी. हर मुसलामन को अल्लाह ने दाई (दावत देने वाला) बनाया है, अब ज़ाहिर है दावत मुहब्बत ही से दी जा सकती है और किसी तरह से नहीं. 

 दूसरी बात अज़ान मुसलमानों को नमाज़ के लिए बुलाने का एक एलान करने का तरीका है. इसका मकसद सिर्फ मुसलमानों को बुलाना है. ज़ाहिर है ऐलान ज़ोर की आवाज़ ही से होता है ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँच सके, पहले जब लाउडस्पीकर नहीं होते थे तो अज़ान देने वाले मस्जिद की छत पर चढ़ कर अपनी पूरी ताकत से अज़ान देते थे. फिर लाउडस्पीकर आया तो उनका काम आसान हो गया इसलिए इसका इस्तिमाल किया जाने लगा.

लाउडस्पीकर इस्लाम का कोई हिस्सा नहीं बस आज जब कि वाहनों वगैरह का शोर बहुत होता है, इसलिए ये आज की ज़रूरत बन गया है. 

लेकिन ध्वनी प्रदूषण की वजह से मैं इस बात का पूरी तरह समर्थन करता हूँ कि हर धार्मिक स्थल में लाउडस्पीकर पर पूरी तरह पाबन्दी होनी चाहिये, लेकिन सब धर्मों के लिए हो ना कि सिर्फ मस्जिदों के लिए. 

 आप ने कहा की गैर मुस्लिमों में सिर्फ खास दिनों में लाउडस्पीकर का इस्तिमाल होता है. माफ़ कीजये ये बात आप की सब के लिए बिलकुल गलत. क्यों कि मेरे घर से कुछ दूर ही एक मंदिर है जहाँ रोज़ सुबह सूरज निकलने से पहले कोई आधा घंटे के लिए बहुत तेज़ आवाज़ में भक्ति गीत के टेप बजा कर छोड़ दिए जाते हैं. और ये रोज़ होता है और कुछ ख़ास मोकों पर तो पूरी रात होता है.

तो किसी भी धर्म में किसी को तकलीफ देना किसी भी तरह जायज़ नहीं है, इसलिए मैं आप का समर्थन करता हूँ कि सभी धार्मिक स्धलों पर लाउडस्पीकर पर पाबन्दी होनी चाहिये. और जहाँ गैरमुस्लिम रहते हैं वहां की मस्जिद वालों को तो इसका खास ध्यान रखना चाहिये.

(लेखन :मुशर्रफ़ अहमद)

 धर्म तो सब ही शांति प्रिय होते हैं, वो कौनसा धर्म है जो शांति नहीं चाहता या शांति का सन्देश नहीं देता ? अगर कोई धर्म हिंसा और अशांति की शिक्षा देगा तो वो धर्म जन्म लेते ही मर जाएगा क्यों कि लोग उसे स्वीकारेंगे ही नहीं. धर्म का कम् ही इंसान नामी इस जानवर को इंसान बनाना है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि धर्म ज़बरदस्ती लोगों के नेक बना देता है. खुदा ने जिस स्कीम के तहत इस दुनिया को बनाया है उसमे खुदा ने इंसान को अच्छे बुरे कर्म करने के लिए आज़ाद छोड़ रखा है. तो जिसका जी चाहे अच्छा करे जिसका जी चाहे बुरा करे. तो किसी के बुरा होने के लिए धर्म जुम्मेदार नहीं होता, धर्म तो हमेशा अच्छी बाते ही सिखाता है, ये तो लोग हैं जो असल धर्म को छोड़ कर अपनी मन मानी करने लगते हैं.

ऐसा भी नहीं है कि दुनियां में सिर्फ मुसलमानों में ही खून खराबा हुआ है बाकि सब शांत बैठे रहते हैं. दुनियां का इतिहास देखेंगे तो पता चलेगा कि मुसलमान तो इस लिस्ट में फिर भी बहुत नीचे हैं.

महाभारत का युद्ध अगर वो सच था तो उसे देख लीजये, कहा जाता है उसमे लगभग 40 लाख लोग मारे गए थे. उसके बाद भारत में उँगलियों पर गिने जाने लायक ही मर्द बचे थे

राम जी और रावण का युद्ध बताया जाता है कि रावण की तरफ से उसमे कई करोड़ लोग थे.  कथाओं को छोड़ कर इतिहास की बात करें तो अशोक ने अपने 99 भाइयों को मार कर पूरे देश में दूसरे राज्यों को जीतने में जो खून खराबा किया था उसे तो आपने पढ़ा ही होगा. अकेले कलिंग में ही एक लाख लोग मारे गए थे.

फिर आगे चल कर अशोक के पौत्र और अंतिम मौर्य राजा की हत्या करने वाले ने गद्दी संभाली और बोद्ध भिक्षुओं का क़त्ल शुरू कर दिया.

अगर निष्पक्ष और ईमानदारी से इतिहास पढ़ें (जो एक मुश्किल काम है लेकिन नेक इंसानों के लिए नहीं) तो मुग़ल काल से पहले भारत खुद बहुत सारी छोटी छोटी रियासतों में बटा हुआ था, वे आपस में हमेशा लड़ते ही रहते थे लड़ लड़ कर कमज़ोर हो चुके थे इसी वजह से मुग़ल यहाँ जंगे जीत पाए.

ईसाईयों का इतिहास पढ़ें तो वहां भी यही हाल था. उनकी सारी आपसी लड़ाइयों को लिखना तो मेरे लिए मुमकिन नहीं लेकिन सिर्फ एक का ज़िक्र करदूं. सतरहवीं सदी में रोमन साम्राज्य में केथोलिक और प्रोटेस्टेंट सम्प्रदाय में लड़ाई हुई जो 30 साल लम्बी चली. अनुमान लगाया जाता है कि उसमे 90 लाख तक लोग मारे गए थे. तो ये लड़ाई झगड़े सिर्फ मुसलमानों के साथ ही नही हैं बल्कि सब बड़े धर्म वालों का इतिहास में यही हाल है. और इसमें धर्म वालों की ही बात नहीं है बल्कि दुनियां में मार्क्सवादियों को भी जब पॉवर मिली तो कई जगह उन्होंने भी अपनी जनता पर बहुत ज़ुल्म किये हैं. मानव अधिकारों को भी उन्होंने पैरों से रोंद डाला.

लेकिन आप के सवाल से लगता है शायद आपने सिर्फ मुस्लिम राजाओं का ही इतिहास पढ़ा है नहीं तो आप ये एतराज़ नहीं करते.

देखये धर्म कोई भी हो हमेशा नेतिकता ही सिखाता है ये बात अलग है कि लोग धर्म का गलत इस्तिमाल करते रहते हैं. कोई धर्म किसी पर ज़ुल्म करने को नहीं कहता और ना कह सकता है. लेकिन अच्छे बुरे लोग हर धर्म में होते हैं.

कुरआन में भी किसी पर ज़ुल्म करने को बहुत बड़ा गुनाह बताया गया है.  मैं कुरआन से दो चार मिसालें लिख कर अपनी बात ख़त्म कर देता हूँ.

कुरआन में लिख है – धरती में फसाद फैलाना ना चाहो, यकीन मानो अल्लाह फसाद फैलाने वालों को पसंद नहीं करता. (सूरेह कसस 77) जो लोग गुस्से को पी जाते हैं और लोगों की खताएं माफ़ कर देते हैं, अल्लाह ऐसे नेक लोगों से मुहब्बत करता है. (सूरेह आले इमरान 134)  अगर तुम्हे किसी से बदला ही लेना है तो सिर्फ इतना ही बदला लो जितना तुम पर ज़ुल्म किया गया है और अगर तुम माफ़ करदो और सब्र करो तो ये तुम्हारे लिए बहतरीन बात है. (सूरेह नहल 126)

ऐन जंग के दौरान भी कुरआन कहता है – जो तुमसे लड़ते हैं अल्लाह की राह में उनसे लड़ो लेकिन किसी पर ज़्यादती मत करना क्यों कि ज़्यादती करने वालों को अल्लाह बिलकुल पसंद नहीं करता. (सूरेह बक्राह 190)

(लेखन :मुशर्रफ़ अहमद)

जन्म से कुछ खराबी होना ठीक ऐसे ही बीमारियों की वजह से होता है जैसे जन्म के बाद किसी बिमारी से किसी का कोई अंग ख़राब हो जाए.

सही दवा, रहन सहन, प्रदूषण से बचना और सेहत का अच्छा ख्याल रख के इस तरह की बहुत सी चीज़ों पर काबू पाया जा सकता है, ऐसे ही आप जानते हैं कि गर्भवती माँ का भी ख्याल रखने की बहुत ज़रूरत होती है अक्सर बिमारियाँ और कमजोरियां माँ से ही बच्चे में आजाती हैं.

यह तो मैंने आप को एक जनरल बात बताई जो आप पहले से ही जानते और मानते हैं, बस ध्यान दिलाना मेरा मकसद था ताकि लोग गर्भ अवस्था में माँ का ख्याल रखना ही ना बंद करदें और हमारी आने वाली नस्ल कई खराबियों के साथ पैदा हो, और लोग उसे अपनी गलती समझने के बजाय पुनर जनम के पाप ही समझते रहें.

जहाँ तक जनम से या जनम के बाद अपंग बच्चे या बड़े का सवाल इस्लाम के हवाले से है तो वो किसी पाप की वजह से नहीं बल्कि किसी बिमारी, कमज़ोरी या हमारी किसी लापरवाही वगैरह की वजह से है. आप इस जगह पर यह सवाल कर सकते हैं कि ठीक है बच्चे की बिमारी की कोई नस्ली या जिस्मानी लापरवाही वजह हो सकती है लेकिन बच्चे के लिए तो वह एक मुसीबत ही है और उसका जुम्मेदार भले ही सारी दुनिया हो लेकिन वो बच्चा खुद तो जुम्मेदार नहीं है, तो उसके साथ अल्लाह का क्या मामला है ?

तो यह सवाल बिलकुल ठीक है और इसका जवाब बहुत छोटा सा लेकिन बहुत ध्यान देने के लायक है वो यह कि ”अल्लाह ने यह दुनिया इम्तिहान के उसूल पर बनाई है और यह दुनिया इम्तिहान के उसूल पर ही चल रही थी, चल रही है और क़यामत तक इम्तिहान के उसूल पर ही चलती रहेगी.”

आप गौर कीजये तो यह बात बहुत आसानी से समझ में आजाएगी कि आप हर वक़्त एक इम्तिहान से गुज़र रहे होते हैं, जैसे आप एक पति हैं तो यह आप का इम्तिहान है कि आप अपनी पत्नी के कितने हक अदा करते हैं और कितने नहीं करते. ऐसे ही आप एक ही वक़्त में किसी के बेटे, भाई, दोस्त, पड़ोसी, नौकर या समाज के नागरिक हैं यह आप के कुछ रोल हैं जो खुदा ने आप को दिये हैं इन को आप कैसे निभाते हैं यही आप का इम्तिहान है, और आप की हर एक हरकत अल्लाह के यहाँ नोट की जारही है.

ऐसे ही आप के ऊपर अच्छे बुरे आने वाले सब हालात भी इम्तिहान होते हैं जिन में आप को अपना रवैय्या सही रख कर पास करना होते हैं. मेरी इस बात पर खास गौर कीजयेगा कि मैंने सब अच्छे भी और बुरे हालात लिखा है.

अगर आप तंदुरुस्त हैं अमीर हैं इज्ज़त और रुतबे वाले हैं तो आप का इम्तिहान उससे ज़्यादा मुश्किल है जो बीमार है गरीब है जिसकी समाज में कोई इज्ज़त नहीं, क्यों कि ताकत मिलने से ही जुम्मेदारीयां भी उसी हिसाब से बढ़ जाती हैं.

फिर एक दिन इस दुनिया को खत्म होना है उसे हम क़यामत का दिन कहते हैं, उस दिन एक अदालत लगेगी और उस वक़्त जज खुद काएनात का रब होगा. वही दिन असल में आप के हर इम्तिहान का रिज़ल्ट और उसका फल मिलने का दिन है. उस दिन जो मुसीबतें और मुश्किलें आप पर कुदरत की तरफ से हों या किसी और तरफ से उसका फल दे दिया जाएगा, यहाँ तक कि जो दर्द माँ ने अपने बच्चे को जनम देते हुए सहा है उसका भी इतना ज़्यादा अच्छा फल दिया जाएगा कि कोई माँ सोच भी नहीं सकती थी. बस यही पूरी बात है और आप के सवाल का जवाब भी. यानि इस्लाम में दूसरा जन्म तो है लेकिन वो इस दुनिया में नहीं बल्कि दूसरी दुनियां में होगा और वहां इंसान हमेशा रहेंगे, इस दुनियां में अगर किसी इंसान ने बिना अपनी किसी गलती के कुदरत के या दूसरों के कारण कोई कष्ट भोगा है कोई दुःख सहना पड़ा है तो उसके बदले उसे वहां बहुत कुछ दिया जाएगा.

(लेखन : मुशर्रफ़ अहमद) 

 जी नहीं, हमें ऐसे ही किसी को भी काफ़िर कहने का हक नहीं है हम सिर्फ उसको कह सकते हैं जिसे कुरआन या अल्लाह के रसूल सल्ल० ने काफ़िर कहा हो. इसकी वजह ये है कि हम किसी के दिल का हाल नहीं जानते लेकिन अल्लाह ही जानता है.

आसान और कम शब्दों में कहूँ तो काफ़िर कुरआन सिर्फ उन लोगों को कहता है जिनके सामने अल्लाह ने अपने रसूलों के ज़रिये से धर्म की सही बात पेश की और उन्होंने उसे समझने के बाद भी अपने किसी लालच, पूर्वाग्रह, घमण्ड या पक्षपात के कारण मानने से इनकार कर दिया, तो कुरआन की भाषा में वो काफ़िर है और उसका जुर्म ये है कि उसने ईश्वर की एक सच्ची बात को जान बूझ कर ठुकरा दिया है. तो ये दिल का मामला है और हम किसी के दिल को नहीं जानते. अगर कोई मुसलमान नहीं है तो आप उसे ब हेसियते कौम गैरमुस्लिम कहें. 

 कुरआन ने भी सब गैरमुस्लिमों को काफ़िर नहीं कहा है बल्कि सूरेह यासीन आयत 6 में उन्हें ”गाफिलून” ज़रूर कहा गया है. इसका मतलब ये है ”जिन्हें पता नहीं”.

कुरआन में यहाँ ये कहा गया है कि जिन्हें हमारे दीन (धर्म) का कुछ पता नहीं है क्यों कि उनके या उनके बाप और दादा के ज़माने में कोई रसूल उनके पास खबरदार करने नहीं आया था इसलिए वो अनजान हैं. अब हमारा काम कुरआन के ज़रिये उन तक सही बात पहुंचा देना है.

(लेखन : मुशर्रफ़ अहमद)

 इस्लाम ने “एक रिश्ता ए निकाह” में तीन बार तलाक़ का प्रावधान रखा है। अगर कोई मर्द ये तीनों हक़ (अलग अलग मौकों पर) इस्तेमाल कर लेता है तो फिर ये रिश्ता हमेशा के लिए खत्म हो जाता है और ये मर्द और औरत दोबारा कभी भी निकाह नहीं कर सकते (सिवाय एक परिस्थिति के जो हम आगे बयान करेंगे)।अब मर्द भी आज़ाद है और औरत भी आज़ाद है। ये दोनों जिससे भी निकाह करना चाहे कर सकते हैं या चाहे तो किसी से निकाह नहीं करें।

अब कल्पना कीजिये कि औरत ने अपनी आज़ादाना मर्ज़ी से किसी दूसरे शख़्स से निकाह किया और इत्तेफाक से उनके बीच मे भी निभा नहीं हो सका और उनका भी “एक तलाक़” हो गया या फिर शौहर की मृत्यु हो जाती है तो इस परिस्थिति में ये औरत फिर से तलाक़शुदा या बेवा कहलाएगी और ये बिलकुल आज़ाद हैं चाहे तो वो निकाह न करें या फिर जिससे चाहे निकाह कर ले यहाँ तक कि वो अपने पहले शौहर से भी निकाह कर सकती है। औरत को अपने पहले शौहर से दोबारा निकाह करने की ये इजाज़त केवल इस इत्तेफाक से हुई परिस्थिति में हैं। इस कानून को “कानून ए हलाला” कहते हैं। ज़ाहिर है कि ऐसी परिस्थिति गिने-चुने लोगों के साथ ही हो पाती है। अँग्रेजी में इसे “rarest of rare case” कहते हैं।

अब ज़रा समझते हैं कि “हलाला” के नाम पर जो गलत और शर्मनाक हरकत कुछ तथाकथित “विद्वानों” के द्वारा की जाती है उसकी वास्तविकता क्या है। हमारे समाज में कई लोग तीन मर्तबा तलाक़ होने के बाद जहालत की हर हद पार करके कानून ए हलाला जो कि “इत्तेफाक” से होने वाली परिस्थिति पर आधारित हैं उसे जानबूझकर एक “अनुबंध विवाह” (यानि contract marriage) में तब्दील कर देते हैं जिसकी तफसील आप लोग जानते है। और जिस औरत से वो (पहला शख़्स) दोबारा निकाह के लिए पात्र नहीं था उसके लिए पात्रता हासिल करने के लिए वो औरत को किसी दूसरे शख़्स से कांट्रैक्ट विवाह करने पर मजबूर करता हैं और फिर दोनों का उसी कांट्रैक्ट (अनुबंध) के अनुसार तलाक़ भी करवाता हैं ताकि वो फिर से उससे शादी कर सके। ये कुरआन के कानून के साथ खिलवाड़ है।

ऐसी हरकत करने वालों के बारे में रसूलअल्लाह (स) ने फरमाया: “क्या में तुम्हें एक किराये के बकरे के बारे में न बताऊँ? लोगों ने कहाँ: ए अल्लाह के रसूल फरमाएँ। तो आप (स) ने फरमाया: “वो हलाला करने वाला है,अल्लाह तआला की लानत हो हलाला करने और करवाने वाले पर”।

हवाला: सुनन इब्न माजह , हदीस नंबर 1936, हसन हदीस

https://sunnah.com/urn/1262550

एक दूसरी हदीस में आता है कि इब्न अब्बास (स) ने फरमाया कि अल्लाह के रसूल ने “हलाला करने” और “करवाने” वालों पर लानत फरमाई है।

हवाला: सुनन इब्न माजह हदीस नंबर 1934, सहीह हदीस

https://sunnah.com/urn/1262530 इन अहदीस में हलाला से तात्पर्य “contract marriage” से हैं।

अल्लाह ताला से दुआ हैं कि हमें दीन की सही समझ अता फरमाए और जहां पर भी “हलाला” के नाम पर इस शर्मनाक प्रथा पर अमल किया जा रहा है उससे हमारी समाज कि औरतों को महफ़ूज रखें। आमीन

(लेखन : मुशर्रफ़ अहमद)

फिर बात ये भी है कि ईश्वर ने शिर्क की गुंजाईश (संभावना) ना तो इंसानी फितरत (प्रकृति) में रखी है।- इसका मतलब है हर कोई अपने अंतर्मन में ये गवाही पाता है कि ईश्वर जैसा कोई नहीं हो सकता वो अपने आप में अकेला है।

दूसरा ना ब्रह्माण्ड में शिर्क के लिए कोई दलील है।- इसका मतलब ये है कि हम ब्रह्माण्ड में देखते है तो सब कुछ एक ही प्लान का हिस्सा नज़र आता है, जैसे समुद्र से बादल का बनना, फिर उन बादलों से ज़मीन पर बारिश होना, फिर उस बारिश से पौधों का उगना, उन पौधों से सब जीवों को भोजन और ऑक्सीजन मिलना।

फिर थोड़ा और गहराई में जाएं तो मौसम बदलना, रात दिन होना, सूरज चाँद वगैरह का धरती से सही सही दूरी पर होना वगैरह ये सब प्रमाण हैं कि इन सब का मालिक एक ही हो सकता है।

इसी तरह ना इल्हामी किताबों में शिर्क के लिए कोई गुन्जाएश है।- यानि उसने कोई ऐसा पैगम्बर (दूत) नहीं भेजा जिसने ये कहा हो कि तुम ईश्वर के साथ उसके अधिकारों में मुझे भी शामिल करो।

तो एक ही ईश्वर के होने की इतनी सारी दलीलें इंसान के चारो तरह फैली होने के बाद भी अगर कोई शिर्क करता है तो इससे बड़ा ज़ुल्म और क्या है ?

इसी लिए कुरआन सूरेह लुकमान 13 में कहता है ”इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं कि शिर्क अज़ीम ज़ुल्म है।”

शिर्क एहसान फरामोशी भी है, वो इस लिए कि इंसान के एक एक साँस तक की व्यवस्था तो ईश्वर ने की है, तो इंसानियत तो यही है कि उसका आभार व्यक्त किया जाए, लेकिन शिर्क करने वाला ईश्वर की दी हुई हर चीज़ के लिए ईश्वर को छोड़ किसी और का आभार व्यक्त कर रहा होता है, और उससे ऐसा प्यार उसका ऐसा सम्मान कर रहा होता है जैसा ईश्वर का होना चाहिये था। गौर कीजये तो ये एक बहुत बड़ी नैतिक (अख्लाकी) बुराई है। 

शिर्क एक बुराई इस लिए भी है कि ईश्वर के साथ शिर्क करने वाला शिर्क के नतीजे में उस उदेश्य से भी बिलकुल बे परवाह हो जाता है जिस उदेश्य से ईश्वर ने उसे धरती पर भेजा है।

तो ये समझ लेने के बाद कि शिर्क एक बहुत बड़ी बुराई है जिसके लिए इंसान के पास कोई बहाना तक नहीं है। आइये अब समझते हैं कि शिर्क की सज़ा क्यों दी जाएगी ?

इसमें सबसे पहले तो बता दूँ आप के दिए हुए तीनो ऑप्शन ही गलत है। जिन कारणों से ईश्वर किसी भी जुर्म की सज़ा देगा वो कारण आप के दिए हुए ऑप्शन में है ही नहीं। आप गौर कीजये तो आप के दिए ऑप्शन के हिसाब से तो ईश्वर को शिर्क ही क्या किसी भी पाप की सज़ा नहीं देनी चाहिये।

मुख्यतः तीन कारण हैं जिन कारणों से शिर्क की सज़ा दी जाएगी।

पहला और सबसे बड़ा कारण है ईश्वर का न्याय के साथ स्थापित (कायम) होना। ईश्वर ने ये दुनियां न्याय के सिद्धांत पर बनाई, यही कारण है कि उसने इंसान फितरत में इन्साफ पसंदी रख दी है, हर इंसान न्यायप्रिय है और हर किसी की चाहत होती है कि दुनियां में सबको पूरा न्याय मिल सके। ईश्वर ने कुरआन में इंसानों को भी बार बार आदेश दिया कि वो हर हाल में न्याय करें किसी के साथ अन्याय ना करें, और वो खुद भी इससे पाक है कि वो कभी न्याय से एक इंच भी हटे।

अल कुरआन 3:18 में है कि -”ईश्वर गवाह है और सब फ़रिश्ते भी और ज्ञान वाले लोग भी कि उसके सिवा कोई ईश्वर नहीं और वो न्याय के साथ स्थापित (क़ायम) है…

”अगर वो शिर्क की सज़ा ना दे तो ये उन लोगों के साथ ना इंसाफी होगी जिन्होंने शिर्क नहीं किया था। जैसे जिसने सारी ज़िन्दगी ईश्वर की तरफ से झूट बोला और जिसने कभी झूट नहीं बोला वो बराबर नहीं हो सकते, अगर ईश्वर के यहाँ वो दोनों बराबर हैं, तो ये उनके साथ न्याय नहीं है जिन्होंने सच्चाई का साथ निभाया।

तो अगर ईश्वर आज्ञाकारी और लापरवाह, झूटे और सच्चे शरीफों और मुजरिमों को बराबर कर देंगे तो ये न्याय ना होगा और ये ईश्वर की शान के खिलाफ है कि वो न्याय ही ना कर सके।सूरेह अल क़लम 35,36 में है – ”क्या हम आज्ञाकारियों को मुजरिमों के बराबर कर देंगे ? तुम्हारी अकलों को क्या हो गया है तुम ये कैसा फैसला कर बैठे हो।”

दूसरा कारण है कि ईश्वर लापरवाह नहीं है बल्कि वो एक स्वाभिमानी ईश्वर है। ये तो सही है कि ईश्वर को किसी की ज़रूरत नहीं लेकिन इसका मतलब ये हरगिज़ नहीं कि वो बेपरवाह ईश्वर है या कोई कुछ करता फिरे उसे कोई परवाह नहीं होती, या दुनिया को बना कर भूल चुका है।

हम जानते हैं कि लापरवाही या बे-हिसी एक बुराई है और ईश्वर हर बुराई से पाक है। तो एक ये भी कारण है जिस से वो हर अच्छाई और हर बुराई का फल देगा।तीसरा कारण है दुनियां में अपने होने के उदेश्य से हटने का परिणाम।

ईश्वर ने इंसान को व्यर्थ ही पैदा नहीं किया है। (व्यर्थ काम करना भी एक बुराई है)

इंसान का उदेश्य है स्वेच्छा से ईश्वर के बताऐ हुए मार्ग पर चलना, वो भी ईश्वर को आखों से देखे बिना। 

 हम देखते हैं सितारों से ले कर समुन्द्र की छोटी मछली तक ब्रह्माण्ड की हर चीज़ ईश्वर की बनाई हुई प्रकृति के अनुसार अपने हिस्से का जीवन गुज़ार रही है, सिर्फ इंसान ही है जो ईश्वर की बनाई हुई प्रकृति के नियमों में बंधा नज़र नहीं आता। मसलन इंसानी फितरत तो थी कि सच बोला जाए लेकिन इंसान अपनी फितरत के खिलाफ जाकर झूट भी बोलता है। इसी तरह इंसानी प्रकृति में एक ईश्वर के होने का एहसास तो है (जिसे कुरआन ने 7:172 में बताया है कि कब और कैसे ये अहसास इन्सान की प्रकृति में रखा गया था) लेकिन इंसान अपनी फितरत के खिलाफ जा कर शिर्क भी करता है। ईश्वर ने ये दुनियां इसी परीक्षा के सिद्धांत पर बनाई है, यहाँ हर समय हर इंसान एक परीक्षा से गुज़र रहा होता है।

शिर्क करने का नतीजा ये निकलता है कि उस इंसान को ईश्वर की परीक्षा पास करने की कोई ज़रूरत महसूस नहीं होती, क्यों कि वो मान चुका है जिन्हे वो ईश्वर का शरीक कर रहा है वो उसे ईश्वर के कानून के पंजे के छुड़ा लेंगे।

हम जो भी यहाँ अच्छा या बुरा करते हैं जल्दी या देर से उसका एक परिणाम ज़रूर निकलता है यह भी ईश्वर का एक सिद्धांत है जिसे हम अपनी आँखों से भी देख सकते हैं।

जो चीज़ अपने बनाए जाने के उदेश्य से ही हट जाती है उनका अंजाम हमेशा ही बहुत भयानक निकलता है, यह भी एक कारण है जो शिर्क की सज़ा इनती सख्त है।तो ये हैं वे तीन सही ऑप्शन और उपरोक्त कारण जो ईश्वर शिर्क की सज़ा देगा।

(लेखन : मुशर्रफ़ अहमद)

शायरी करना या सुनना, संगीत सुनना या बजाना, डांस करना या देखना, एक्टिंग करना या देखना, ग़ज़ल गाना या सुनना, विडियो गेम खेलना या देखना या कोई और खेल खेलना या देखना ये सब चीजें अपने आप में बिलकुल जायज़ हैं. लेकिन इनका गलत इस्तिमाल इनको हराम कर सकता है जो कि आज कल अक्सर होता है.
देखए कुरआन की सूरेह आराफ 33 में अल्लाह ने फरमाया है कि उसने खाने पीने के अलावा सिर्फ और सिर्फ पांच केटेगरी की चीज़ों को हराम किया है. वो ये हैं.

  1. बेशर्मी, बेहयाई चाहे वो छुपी हो या खुली.
  2. किसी का हक मारना. चाहे वो कैसा भी हो.
  3. हर तरह का ज़ुल्म.
  4. किसी को बिना हक अल्लाह का साझी करार देना. चाहे मामूली सी बात में ही क्यों ना हो.
  5. अल्लाह की तरफ से ऐसी कोई बात कहना जो अल्लाह ने नहीं कही. यानि धर्म में कोई छोटी या बड़ी बात अपनी तरफ से ऐड कर देना या बदल देना.
    ये आयत एक कसौटी की तरह है जिस पर हर चीज़ को परख कर देखा जा सकता है कि उस चीज़ की क्या हैस्यत है.
    अब आप इनमे से एक चीज़ जैसे डांस ही को लेकर इस कसौटी पर परखये. इस कसौटी पर सिर्फ वही खरा उतर सकेगा जिस डांस में किसी तरह की बेहयाई न हो यानि अंग प्रदर्शन न हो कोई अश्लील इशारा न हो पूरा लिबास पहना गया हो विपरीत लिंग को आकर्षित ना करता हो गैर मर्द और औरत एक साथ ना होते हों, उसमे कोई धार्मिक चीज़ ना हो या उसकी वजह से किसी को परेशानी ना हो रही हो.
    ऐसा डांस शायद ही कोई होता होगा जिसमे इनमे से कोई चीज़ ना पाई जाती हो. अगर होता है तो वो जायज़ है इस्लाम को उस पर कोई आपत्ति नहीं है.
    ऐसे ही आप एक्टिंग को ले सकते हैं उसमे भी देखए कि इनमे से कोई चीज़ पाई जाती है या नहीं उस अभिनय से किसी तरह की किसी अनैतिक बात को बढ़ावा तो नहीं मिल रहा, किसी हराम चीज़ का प्रचार तो नहीं हो रहा जैसे शराब वगैरह, किसी झूटी बात को सच बता कर तो पेश नहीं किया जा रहा वगैरह.
    ऐसे ही आप शायरी को ले सकते हैं ज़ाहिर है उसकी भी सामग्री देख कर ही बताया जा सकता है कि उसमे क्या चीज़ गलत है और क्या सही है, मापदण्ड वही होगा जो इस आयत में बताया गया है.                                              लेखन : मुशर्रफ़ अहमद

 असल में हम मुसलमान समझते हैं कि हम सिर्फ कर्म की आज़माइश (परीक्षा) में हैं यानि हम को शुरू से हिदायत मिली हुई है हमारा काम सिर्फ कर्म है (ईमान हमारे साथ शुरू/जन्म से है) और विचार और विश्वास(ईमान) का मुश्किल इम्तेहान(परीक्षा) सिर्फ ग़ैर मुस्लिमों के लिये है….

यह सरासर ग़लत व सिर्फ हमारा भ्रम मात्र है…. अगर ग़ौर व फिक्र(विचार) किया जाये तो दोनों एक ही नाव पर सवार दो यात्री की तरह है..

हमारी विडंबना यह है कि हम फिक्र(विचार) और ईमान(विश्वास) के इम्तेहान (परीक्षा) को ग़ैर मुस्लिमों का मामला/समस्या(matter) समझते हैं जबकि हमारे लिये भी इम्तेहान उस ही तरह जारी है जैसे ग़ैर मुस्लिम भाईयों के लिये.. ग़ैर मुस्लिम भाईयों के लिये इसका मतलब ईमान(विश्वास) से रूबरू होंना है (यानि एकेश्वरावाद) और हमारे लिये सच्चाई क़ुबूल करना है(यानि अल्लाह के बताये नियम/आदेशों का निष्ठा/समर्पण से पालन करना) मगर होता यह है कि हम में से अक्सर लोग अपने मतलब की हद(limit) तक सच्चाई क़ुबूल करनें में रुचि रखते हैं(आज मुसलमानों में फैली कुसंगतियां/कट्टरता/अपने अलावा किसी दूसरे धर्म को तुच्छ समझना/अपने को सही व दूसरे को ग़लत समझना/जन्नत की ठेकेदारी आदि इसका साक्षात उधाहरण हैं)….

..जो सच्चाई हमारे पूर्वाग्रहों,पक्षपात के ख़िलाफ हो हमें इसमें कोई दिलचस्पी महसूस नहीं होती बस हमारे लिये वही सही जो हमारे नज़रिये में सही बाक़ी सब ग़लत….स्वंय विचार कीजिये discrimination कहां है….दोंनों पर ही समान परीक्षा का बोझ है बस फर्क़ आयाम(dimensions) और प्रकार (types) का है… 

लेखन : फ़ारूक़ खान

 

 जी नहीं ऐसी कोई बात नहीं है. कुरआन में औरत और मर्द की गवाही बराबर है देखये सूरेह नूर आयत 8. वो मामला जिसके बारे में ये समझा जाता है कि औरत की गवाही मर्द के मुकाबले में आधी होती है आम गवाही से बिलकुल अलग है.<br>उस पर आने से पहले ये बात ज़रूर याद रखिये कि आम गवाही जो जुर्म के मामलों में दी जाती है वहां आधी और पूरी गवाही का कोई कोंसेप्ट नहीं होता, वहां तो सिर्फ ये देखा जाता है कि जुर्म को होते हुए किसने देखा है और किसने नहीं देखा और कौन सच बोल रहा है. हो सकता है कि किसी केस में एक औरत सच्ची गवाह हो और उसके मुकाबले में 10 मर्द झूटे गवाह खड़े हों, तो भी अगर जज ये समझता हो कि औरत सच बोल रही है और ये दस मर्द झूटे हैं तो वो उस औरत के मुताबिक ही फेसला करेगा. तो जुर्म के मामले में औरत मर्द होना या तादाद ज़्यादा कम होना कोई मायने नहीं रखता.

असल में वो हुक्म सूरेह बक्राह आयत 282 में आया है. वहां जो बात हो रही है वो सादा अल्फाज़ में ये है कि अल्लाह ने हुक्म दिया है कि अगर तुम लम्बे समय के लिए उधार या लेनदेन का कोई मामला कर रहे हो, तो उसे जिन्हें तुम पसंद करो (यानि क़र्ज़ देने वाला भी और लेने वाला भी) ऐसे कम से कम दो मर्द गवाहों की मौजूदगी में लिख लिया करो. और अगर दो मर्द ना मिल सकें तो एक मर्द और दो औरतें कर लो.

ये लिखने और गवाहों के साइन लेने का मकसद ये है कि अगर कल को इस लेनदेन के मामले में कोई एक बेईमानी पर उतर आए और मामला अदालत में पहुंचे तो गवाहों की मदद से केस को सुलझाने में आसानी हो.

अब यहाँ वो सवाल है कि एक मर्द के बदले गवाह बनाने ले लिय दो औरतों को क्यों कहा गया है ? तो ये बहुत सादा बात है क्योंकि एक तो दूसरों के मामले में गवाही देना एक बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है और शरीयत में यह भी है कि गवाही देने वाला झूठा साबित हो तो उसको भी सज़ा दी जाएगी तो ऐसे सख्त मामले में यहाँ औरत को आसानी देने के लिए उसकी एक साथी को मुक़र्रर करने का हुक्म है. ये इस्लाम का आम मिजाज़ है कि वो औरत को आसानी देता है. मिसाल के लिए औरत पर मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ना या एत्काफ करना ऐसे ज़रूरी नहीं किया गया जैसे मर्दों पर किया गया है, या लड़ाई में जाना वगैरह.

यहाँ इस आयत में भी साफ़ ज़ाहिर है कि यही पसंद किया गया कि पहले तो औरतों को ऐसे मामलों में ना घसीटा जाए लेकिन अगर मजबूरी है तो इस आयत में भी औरत को आसानी देना ही मकसद है, वो इसलिए कि आम तौर पर औरतें घर संभालती हैं तो उनका अदालतों में पेश होना वहां जज और दूसरे लोगों के सामने गवाही देना जहाँ अक्सर मर्द ही मर्द होते हैं ज़हनी तौर पर एक घरेलु औरत के लिए आसान काम नहीं होता. ऐसे माहोल में एक अकेली औरत घबरा सकती है जिसका असर उसकी गवाही पर पड़ सकता है वो उस मामले का कुछ हिस्सा भूल सकती है या कुछ कन्फ्यूज़ हो सकती है, इसलिए उसको सहारा देने के लिए उसके लिए आसानी करने के लिए उसकी एक साथी को मुक़र्रर करने का हुक्म है. ये ऐन फितरी चीज़ है और बहुत अच्छी चीज़ है.

लेखन : मुशर्रफ़ अहमद  

 सही शब्द ‘तक़िय्या’ है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘डर’ (Fear) । अरबी भाषा के व्याकरणानुसार ‘अल’ जोड़कर जब ‘अल-तक़िय्या’ कहा जाता है तो उसका मतलब होगा ‘The Fear’. Noun تَقِيَّة • (taqiyya) fear, caution, prudence, dissimulation or concealing of one’s beliefs, opinions, or religion in time of duress or threat of physical or mental injury.

आम तौर पर यह शब्द एक विशेष अर्थ में बोला जाने लगा है। यह अर्थ उत्पन्न होने के पीछे कारण यह था कि इस्लाम में पहली सदी हिजरी में उमैया वंश के तत्कालीन सत्ताधारी बादशाहों तथा शिया मतावलंबियों के बीच हुए सत्ता संघर्ष में जब इमामों और उनके समर्थकों को उत्पीड़न और हिंसा का शिकार बनाया जाने लगा, तब सत्ताविरोधियों द्वारा अपने विचारों को छुपाया जाने लगा और सार्वजनिक तौर पर अपने विचार प्रकट करने से बचते हुए अपनी जान बचाने के लिये ऊपरी तौर पर उन्हीं की हां में हां मिलाना शुरू किया। बज़ाहिर इस कपटपूर्ण आचरण की कोई गुंजाइश नहीं थी क्योंकि इस्लाम ने मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) के लिये अल्लाह के सख़्त अज़ाब से डराया है। लेकिन उन लोगों ने इस अड़चन में क़ुरआन की एक आयत को ही अपनी ढाल बना लिया और कहा कि इस आयत में हमें इस तरह के व्यवहार की छूट दी गई है। Surat No 3 : Ayat No 28 ईमानवाले ईमानवालों को छोड़कर कुफ्र करने वालों [हक़ का इनकार करनेवालों] को अपना दोस्त और मददगार हरगिज़ न बनाएँ। जो ऐसा करेगा उसका अल्लाह से कोई ताल्लुक़ नहीं। हाँ, ये माफ़ है कि तुम उनके ज़ुल्म से बचने के लिए ऊपरी तौर पर ये रवैया अपना लो। और अल्लाह तुम्हें अपने आपसे डराता है, और तुम्हें उसी की तरफ़ पलटकर जाना है।

इस तरह ‘तक़िय्या’ शिया मतावलंबियों के बीच दुश्मन के ज़ुल्म से अपने को सुरक्षित रखने के लिये एक नीति के तौर पर प्रचलन में आया और उन्हीं के यहां यह अब भी प्रचलित है। सुन्नी मतावलंबी इसे ठीक नहीं मानते और उनके यहां यह प्रचलन दुर्लभ है। तक़िय्या की यह नीति बादशाहत ख़त्म होने के बाद आधुनिक लोकतांत्रिक काल में सिर्फ़ किताबों में शेष बची थी। भारत में तो इस शब्द से पढे लिखे मुसलमान तक परिचित नहीं थे। लेकिन इस्लाम के दुश्मनों के गिरोह ने जब इस्लामी किताबों को खंगालना शुरू किया तो उन्हें पूरे इस्लामी साहित्य में दो शब्द ऐसे मिले जिनसे उन्हें बड़ा चाव है, एक शब्द था हलाला और दूसरा अल-तक़िय्या। बस तब से ऐसा ज़बरदस्त प्रचार किया जा रहा है कि आज की तारीख़ में हर मुसलमान जो शांति-सदभाव की बात करे वह उन्हें तकिया लिये दिखाई देता है।

लेखन : खालिद हफीज़ खान  

 जी नहीं आप की जानकारी सही नहीं है.

नास्तिकता पाप तो हो सकती है लेकिन अपराध नहीं है, धर्म के मामले में अल्लाह ने इंसान को पूरी छूट दी हुई है. धर्म के मामले में जिसका जी चाहे सही राह पर चले जिसका जी चाहे गलत राह पर चले इसका अंजाम परलोक में सामने आयगा किसी इंसान को इसकी सज़ा देने का हक नहीं है.

पाप ये इसलिए हो सकता है क्यूंकि जान बूझ कर अपने रब को मानने और रब की मानने से इन्कार करना एक नैतिक बुराई है, यह लगभग ऐसे ही है जैसे कोई जान बूझ कर अपनी माँ को माँ मानने से इनकार करदे और माँ के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन न करे

जहाँ तक समलैंगिकता का सवाल है तो समलैंगिक प्रवृत्ति का व्यक्ति अगर किसी से अप्राकृतिक यौन संबंध बनाता है तो इस्लाम के दृष्टिकोण से यह पाप भी है और अपराध भी है, ये ऐसे ही अपराध है जैसे बिना शादी के किसी भी औरत से किसी मर्द का शारीरिक सम्बंध बनाना पाप भी है और अपराध भी. और अगर कोई समलैंगिक प्रवृत्ति का व्यक्ति अपने ऊपर संयम रखे और अप्राकृतिक यौन संबंधों से खुद को रोके रखे तो इस्लाम की नज़र में यह बहुत बड़ा पुण्य का काम है.

लेखन : मुशर्रफ़ अहमद  

 कुरान मैं ज़िक्र क़ुर्बानी का वाक़िअ, तौरात (Old Testament/Hebrew Bible) मैं ज़िक्र वाक़िए से बिल्कुल भिन्न है , तौरात के अनुसार क़ुर्बानी का वाक़िअ हज़रात इस्हाक़ as के साथ पेश आया था ना कि इस्माइल as के साथ.. और उसके अनुसार यह वाक़िअ अरब में सैकड़ों किलोमीटर दूर यरूशलेम में माउंट मोरिया के पहाड़ो पर घटित हुआ था (ना कि मक्का मैं)।

यहूदी और ईसाई अक्सर इस क़ुरबानी के क़िस्से को इसहाक as के माध्यम से अब्राहम as के वंशजों पर तौरात मैं वर्णित क़ुर्बानी की कथा में दिए गए आशीर्वाद को हथियाने के राजनीतिक प्रयास के रूप में देखते हैं। यानि उनका यह मानना है कि अल्लाह का ख़ास करम (आशीर्वाद), इस्हाक़ as के माध्यम से इब्राहिम as के वंशजों(यहूदी और ईसाई) पर हुआ ना कि इस्माइल as के माध्यम से इब्राहिम as के वंशजों(मुसलमानो) के पर।

इन ही बुनियादी तथ्यों के विवाद में होने के कारण यहूदी, ईसाई और मुस्लिम व्याख्याओं मैं बहुत अंतर मिलता है , इस ही वजह से यहूदी और ईसाई ईद अल अज़हा नहीं मानते ।

लेखन : फ़ारूक़ खान  

 

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