कलमा कोई मन्त्र की तरह की चीज़ नहीं है कि वो मन्त्र पढ़ने से कुछ हो जाता है, बल्कि शहादा यानि गवाही देना, इकरार करना कि अल्लाह के सिवा कोई रब नहीं और मुहम्मद (सल्ल०) उसके रसूल हैं, यह इस्लाम और कुरआन का सार है, कुरआन के हर पेज पर यही तो साबित किया जा रहा है. दीन (धर्म) की हर बात इन्ही दो बुनियादी चीज़ों को मानने के बाद शुरू होती है, बाकि हर चीज़ इनके बाद है.
अगर फ़र्ज़ करें कि कोई रब ही नहीं है तो उसकी तरफ से कोई किताब भी नहीं हो सकती और अगर हज़रत मुहम्मद (स) रसूल नहीं हैं तो उनकी तरफ से पेश की हुई कोई चीज़ कुछ एहमियत ही नहीं रखती.
इसलिए सिर्फ़ अरबी में शहादा ज़ुबान से बोल लेने से कोई मुसलमान नहीं होता बल्कि इन दो बातें को मानने से मुसलमान होता है, इसीलिए जब अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के सामने कोई इस्लाम क़ुबूल करता था तो अक्सर वो यह नहीं कहता था कि मुहम्मदुर्रसूल अल्लाह ”मुहम्मद (सल्ल.) अल्लाह के रसूल हैं” बल्कि वो कहता था कि ला इलाहा इल्लल्लाह अन्ता रसूलअल्लाह ”अल्लाह के सिवा कोई रब नहीं और आप उसके रसूल हैं”
यानि ”मुहम्मद” (सल्ल.) की जगह ”आप” शब्द बोलता था.
और इसीलिए कुरआन में भी सारा ज़ोर इन बातों को मनवाने पर है ना कि ज़ुबान से बुलवाने पर, कुरआन में जितनी भी अकली, ऐतिहासिक और साइंसी दलीलें दी गई है वो सब मनवाने के लिए हैं ना कि बुलवाने के लिए. इसलिए ग़ौर करें तो पूरा कुरआन ही जो है वो ”ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदु’र्रसूलुल्लाह” ही तो है.
ऐसा भी नहीं है ये शब्द कुरआन में हैं ही नहीं कलमे के यही शब्द कुरआन में बहुत बार आये हैं, मिसाल के लिए देखये –
”ला इलाहा इल्लल्लाह” के लिए = सूरेह नं 37 आयत 35 / सूरेह नं 47 आयत 19
”अन्ता या मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह” के लिय = सूरेह 63 आयत 1 / सूरेह 48 आयत 29.
आपका दूसरा सवाल है कि नमाज़ का तरीका (पद्धति) कुरआन में क्यों नहीं ?
देखिये नमाज़, हज, ज़कात, उमरा, क़ुरबानी वगैरह ये सब चीजें मक्का में पहले ही से मौजूद थी, ये सारे काम वहां कुरआन नाज़िल होने से पहले ही किये जा रहे थे. इसकी वजह है वहां इब्राहीम अलै० के दीन (धर्म) का कुछ हिस्सा बाकि था. इसलिए वो इन सब चीज़ों को जानते थे यही वजह है कि कुरआन ने इन सब चीज़ों के सिर्फ नाम लिए तरीक़ा नहीं बताया, सिर्फ़ नाम लेने से ही लोग समझ गए कि बात किस चीज़ की हो रही है.
दूसरी बात ये है कि ये सब चीज़े प्रेक्टिकल करने की हैं इसलिए इनमे जो कमी रह गई थी वो अल्लाह के रसूल सल्ल० ने 23 साल तक प्रेक्टिकल कर के ही दिखाई. इसके बाद ज़रूरत ही नहीं थी कि कुरआन इन सब चीज़ों को करने का तरीक़ा बताता. यही वजह है कि कुरआन में इन चीज़ों को करने का तरीक़ा बयान नहीं हुआ है.
इसको आसानी से समझाने के लिए आज के दौर से एक मिसाल दे देता हूँ. फर्ज़ करें कि अगर आज कुरआन नाज़िल होता और उसे ये हुक्म देना होता कि हर सुबह हम सब को अपने 10 कॉन्टेक्ट को सलाम लिख कर वाट्सएप मेसेज करना है. तो कुरआन को सिर्फ इतना ही कहने की ज़रूरत थी कि ये वाट्सएप मेसेज करना है. वाट्सएप क्या होता है, कैसे इनस्टॉल होता है कैसे अकाउंट बनाते हैं ये सब बातें उसे बताने की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि आम तौर पर लोग इसे जानते हैं और जो नहीं जानते वो दूसरों से पूछ कर चलाना सीख लेते हैं.
आख़री बात ये है कि कुरआन मुकम्मल किताब है का मतलब ये नहीं है कि उसमे हर चीज़ की पूरी तफसील (विवरण) है, बल्कि इसका मतलब ये है कि अब दीन की हिदायत (मार्गदर्शन) के लिए किसी और किताब के नाज़िल होने की ज़रूरत नहीं है. अब इसके बाद आइन्दा आने वाले लोगों में से जिसे हिदायत लेनी हो उसके लिए कुरआन काफी है.
लेखन :मुशर्रफ़ अहमद