पूछे गए प्रश्न से दो उत्तर बनते है पहला अपने जो शब्द ”मोहम्मदीयन” प्रयोग किया उसके सन्दर्भ मैं दूसरा मज़ार से सम्बंधित ….
सर्वप्रथम ”मोहम्मदीयन” शब्द पर आपको कुछ बताना चाहूँगा ….
”मोहम्मदीयन” शब्द के प्रचार-प्रसार मैं लगभर दो-ढाई सौ वर्ष पहले लगभग पूरी दुनिया पर छा जाने वाले यूरोपीय (विशेषतः ब्रिटिश) साम्राज्य की बड़ी भूमिका है। ये साम्राज्यी, जिस ईश-सन्देष्टा (पैग़म्बर) को मानते थे ख़ुद उसे ही अपने धर्म का प्रवर्तक बना दिया और उस पैग़म्बर के अस्ल ईश्वरीय धर्म को बिगाड़ कर, एक नया धर्म उसी पैग़म्बर के नाम पर बना दिया। (ऐसा इसलिए किया कि पैग़म्बर के आह्वाहित अस्ल ईश्वरीय धर्म के नियमों, आदेशों, नैतिक शिक्षाओं और हलाल-हराम के क़ानूनों की पकड़ (Grip) से स्वतंत्र हो जाना चाहते थे, अतः वे ऐसे ही हो भी गए।) यही दशा इस्लाम की भी हो जाए, इसके लिए उन्होंने इस्लाम को ‘मुहम्मडन-इज़्म (Muhammadanism)’ का और मुस्लिमों को ‘मुहम्मडन्स (Muhammadans)’ का नाम दिया जिससे यह मान्यता बन जाए कि मुहम्मद सल्ल० ‘इस्लाम के प्रवर्तक (Founder)’ थे और इस प्रकार इस्लाम का इतिहास केवल 1400 वर्ष पुराना है। न क़ुरआन में, न हदीसों (पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल॰ के कथनों) में, न इस्लामी इतिहास- साहित्य में, न अन्य इस्लामी साहित्य में…कहीं भी इस्लाम के लिए ‘मुहम्मडन-इज़्म’ शब्द और इस्लाम के अनुयायियों के लिए ‘मुहम्मडन’ शब्द प्रयुक्त हुआ है, लेकिन साम्राज्यिों की सत्ता-शक्ति, शैक्षणिक तंत्र और मिशनरी-तंत्र के विशाल व व्यापक उपकरण द्वारा, उपरोक्त मिथ्या धारणा प्रचलित कर दी गई।
भारत के बाशिन्दों में इस दुष्प्रचार का कुछ प्रभाव भी पड़ा, और वे भी इस्लाम को ‘मुहम्मडन-इज़्म’ मान बैठे। ऐसा मानने में इस तथ्य का भी अपना योगदान रहा है कि यहां पहले से ही सिद्धार्थ गौतम बुद्ध जी, ‘‘बौद्ध धर्म’’ के; और महावीर जैन जी ‘‘जैन धर्म’’ के ‘प्रवर्तक’ के रूप में सर्वपरिचित थे। इन ‘धर्मों’ (वास्तव में ‘मतों’) का इतिहास लगभग पौने तीन हज़ार वर्ष पुराना है। इसी परिदृश्य में भारतवासियों में से कुछ ने पाश्चात्य साम्राज्यिों की बातों (मुहम्मडन-इज़्म, और इस्लाम का इतिहास मात्र 1400 वर्ष की ग़लत अवधारणा) पर विश्वास कर लिया।
रहा प्रशन मज़ार का अगर मानव इतिहास उठा कर देखा जाये तो किसी महापुरुष के कथन से यह बात साबित नहीं कि उनके संसार से चले जानें के बाद उनकी कब्र अंतोष्टी की जगह को मज़ार/पूजन हेतु बना दिया जाये…यही सीधा सा कनेसैप्ट इस्लाम का है इस्लाम के आह्वाहक हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) व आपके साथियों(companions) नें ख़ुद कभी अपने जीवन में यह आदेश नहीं दिया कि उनके संसार को झोड़ कर चले जानें के बाद उनकी कब्रों को मज़ार या समाधि बना दी जाये…
आज के परिवेश में जो लोग मज़ारों पर जाते हैं व उसको मानते हैं वह असल में पूजा हेतु नहीं अपितु सम्मान व प्रेम की भावना से जाते हैं….मज़ार पर जाना व उसको मानना लोगों का व्यक्तिगत आचरण हो सकता है लेकिन धर्म से इसका कोई संबंध नहीं…और ना ही कोई आदेश….क्योंकि पूजनीय सिर्फ अल्लाह ईश्वर है मानव नहीं
(फ़ारूक़ खान)