इस्लाम के संसार में तेज़ी से फैलनें के संबंध में हमारे बीच एक बड़ी ग़लतफहमी है…ख़ुद मुसलमान इसका प्रचार-प्रसार बड़ चड़ कर करते हैं साथ ही साथ ग़ैर मुस्लिम भी उनका साथ देते हैं….
और वह ग़लतफहमी यह है कि आज इस्लाम संसार में सबसे तेज़ी से फैलनें वाला दीन/मज़हब है….
Islam is a fastest growing Religion यह बात मुसलमान बहुत फक़्र और घमंड से करके हैं और मानते हैं…दूसरी तरफ ग़र मुस्लिम इदारा भी यही बात कहता है(जैसा आंकड़ों द्वारा फैलाया जाता है).अमरीकन और यूरोपियन इंस्टीट्यूट वह भी यही संसार के सामनें पेश करते हैं कि इस्लाम सबसे तेज़ी से फैलनें वाला मज़हब है(गूगल पर आपको मिल जायेगा)…
तो इससे होता यह है कि मुसलमान ख़ुशफहमी में चला जाता है…कि चलो इस्लाम तेज़ी से फैल रहा है..तो कहीं ना कहीं indirectly वह यह समझनें लगता है कि मुझे ज़्यादा कुछ करनें की ज़रूरत नहीं….
जबकि हक़ीकत इससे बिल्कुल अलग है..और एक हक़ीकत यह भी है कि इस्लाम से लोग(जो मुसलमानों के घरों में पैदा होते हैं), तेज़ी से जा भी रहे हैं लेकिन हम इसको नहीं समझ पाते वह इसलिये कि हमारे पास इसका कोई Data/स्त्रोत/प्रमाण नहीं होता..और दूसरा हमनें पहले ही ऐलान कर दिया है कि अगर इस्लाम से फिरोगे तो क़त्ल कर दिये जाओगे..यानि मुरताद(धर्मत्यागी) के जुर्म में मौत की सज़ा के हक़दार बनोगे(जबकि इस्लाम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं यह सिर्फ कुछ कट्टरपंथियों का छोड़ा एक शिगूफा है)…तो क़त्ल का डर लोगों को दिखा दिया जाता है तो जिन लोगों को इस्लाम से फिरना होता है..व घोषणा नहीं करते अंदर ही अंदर वह धर्मत्यागी हो चुके होते हैं…
जब वह बोलते नहीं तो ज़ाहिर है अपने जज़्बात व दीन को लेकर understanding का इज़हार वह शोशल मीडिया के माघ्यम से करते हैं.social media/FB पर आपको कितने सारे ऐसे ग्रुप मिल जायेंगे .. जिनमें ख़ास कर ऐसे मुसलमान जो जन्म से मुसलमान थे..लेकिन बाद में athieist बन गये…
अब सवाल यह उठता है वह मुरताद क्यूं होते हैं??
..वह इसलिये कि उनके कुछ जायज़ सवाल होते हैं और उनके जायज़ सवालों के जवाब हम नहीं दे पाते…या उनको सवाल पूंछनें से ही हम रोक देते हैं..डरा धमका देते हैं..”’कि दीन की बातों में सवाल करना हराम है/अक़्ल ना लड़ाया करो/बस जो लिखा है उसे आँख बंद करके फौलो करो”…(क्येंकि हमारे बड़ों नें दीन में अक़्ल के इस्तेमाल को हराम किया हुआ है).. जब हम उनके सवालों के जवाब नहीं दे पाते तो उसके reaction में वह लोग यह मान लेते हैं कि यह चीज़ ही बुरी है यानि इस्लाम ही ग़लत है(बहुत से ऐसे उधाहरण मोजूद हैं)..तो कहीं ना कहीं ग़लती हमारी ही है…
लोकिन जो लोग धर्म त्याग रहे हैं उनकी कोई गिनती है ही नहीं लेकिन तेज़ी से लोग इस्लाम में भी आ रहे हैं बस वही देखकर हम ख़ुश हो जाते हैं..
जबकि आप data देखेगे तो उसमें बिल्कुल विपरीत तथ्य सामनें आते हैं..उधाहरण के लिये इस वक़्त संसार की आबादी 7.4 बिलियन/अरब है जिसमें ईसाइयों की आबादी 31.5% यानि 2.2 अरब व मुसलमान 22% यानि 1.6 अरब..तो इन दोनों की आबादी में जो अंतर निकलता है वह लगभग 75 करोड़ का आता है….
यहीं पर एक चीज़ समझनें की है मुसलमान ईसाईयों के मुकाबले 75 करोड़ कम हैं मुसलमान कहते हैं कि हमारी गिनती नबी सल्ल० से शुरू होती है और ईसाई ईसा अ.स से अपने आपको गिनते हैं….दोनों नबियों अ.स के बीच 650 साल का अंतर है ख़ुद सोचिये इस अंतराल में दोनों की आबादी में उस ज़माने में कुछ लाख का ही अंतर रहा होगा(पहले के जमाने में आबादी कम हुआ करती थी) लेकिन 1400 सालों में यही अंतर 75 करोड़ हो गया तो इससे तो यही नतीज़ा निकलता है कि ईसाई मजहब इस्लाम से ज़्यादा तेज़ी से फैल रहा है…यानि इसाईयत ज़्यादा तेज़ी से फैल रही है वह इसलिये कि वह हमारी तरह ढिडोरा नहीं पीटते ख़ामोशी से अपना काम करते हैं..
स्वंय विचार कीजिये जिन इलाकों में दूसरे धर्मों की मिशनरीज़ काम करती हैं उन इलाकों में सबके घरों में आपको बाईबल/गीत मिल जायेगी नहीं मिलेगा तो क़ुरआन क्योंकि हम किसी ग़ैर मुस्लिम को क़ुरआन देनें को पाप समझते है और यह दलील देते हैं कि क़ुरआन की बे-हुरमती होगी..
जबकि क़ुरआन तो पूरी मानवता के लिये है नकि सिर्फ मुसलमानों के लिये…लिहाज़ा इस ख़ुशफहमी में ना रहकर दीन के लिये काम किया जाये….
लेखन : ख़ुर्शीद इमाम