अगर इस्लाम सच्चा है तो फिर मैं हिंदू क्यों ?

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असल में हम मुसलमान समझते हैं कि हम सिर्फ कर्म की आज़माइश (परीक्षा) में हैं यानि हम को शुरू से हिदायत मिली हुई है हमारा काम सिर्फ कर्म है (ईमान हमारे साथ शुरू/जन्म से है) और विचार और विश्वास(ईमान) का मुश्किल इम्तेहान(परीक्षा) सिर्फ ग़ैर मुस्लिमों के लिये है….
यह सरासर ग़लत व सिर्फ हमारा भ्रम मात्र है…. अगर ग़ौर व फिक्र(विचार) किया जाये तो दोनों एक ही नाव पर सवार दो यात्री की तरह है..


हमारी विडंबना यह है कि हम फिक्र(विचार) और ईमान(विश्वास) के इम्तेहान (परीक्षा) को ग़ैर मुस्लिमों का मामला/समस्या(matter) समझते हैं जबकि हमारे लिये भी इम्तेहान उस ही तरह जारी है जैसे ग़ैर मुस्लिम भाईयों के लिये.. ग़ैर मुस्लिम भाईयों के लिये इसका मतलब ईमान(विश्वास) से रूबरू होंना है (यानि एकेश्वरावाद) और हमारे लिये सच्चाई क़ुबूल करना है(यानि अल्लाह के बताये नियम/आदेशों का निष्ठा/समर्पण से पालन करना) मगर होता यह है कि हम में से अक्सर लोग अपने मतलब की हद(limit) तक सच्चाई क़ुबूल करनें में रुचि रखते हैं(आज मुसलमानों में फैली कुसंगतियां/कट्टरता/अपने अलावा किसी दूसरे धर्म को तुच्छ समझना/अपने को सही व दूसरे को ग़लत समझना/जन्नत की ठेकेदारी आदि इसका साक्षात उधाहरण हैं)….


..जो सच्चाई हमारे पूर्वाग्रहों,पक्षपात के ख़िलाफ हो हमें इसमें कोई दिलचस्पी महसूस नहीं होती बस हमारे लिये वही सही जो हमारे नज़रिये में सही बाक़ी सब ग़लत….स्वंय विचार कीजिये discrimination कहां है….दोंनों पर ही समान परीक्षा का बोझ है बस फर्क़ आयाम(dimensions) और प्रकार (types) का है…

लेखन : फ़ारूक़ खान

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