सुन्नी और शिआ समुदायों की ‘मूल-उक्ति’ (कलिमा)–‘ला इलाह इल्ल्-अल्लाह मुहम्मद्-उर-रसूल-अल्लाह’ एक ही है। दोनों, जहां अवसर होता है एक साथ, एक इमाम के पीछे पंक्तिबद्ध होकर, नमाज़ पढ़ते हैं। एक साथ हज करते हैं। एक ही कुरआन का पाठ (तिलावत) करते हैं। परलोक जीवन में स्वर्ग (जन्नत) या नरक (जहन्नम) में एक समान विश्वास रखते हैं। ईश्वर की पूजा-उपासना में किसी को साझी-शरीक (शिर्क) नहीं करते।
विभेद : दोनों समुदायों में विभेद की अस्ल, ‘धार्मिक’ नहीं बल्कि एक तरह से ‘राजनीतिक’ स्तर
की है। हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के देहावसान के तुरंत बाद आप (सल्ल॰) के उत्तराधिकारी की नियुक्ति के बारे में मुस्लिम समुदाय में दो मत उत्पन्न हो गए। आप (सल्ल॰) के ख़ानदान वालों में से अधिकतर का विचार था कि नेतृत्व और शासन हज़रत अली (रज़ि॰) को मिलना चाहिए। (विदित हो कि वह ज़माना पूरे विश्व में बादशाहत का ज़माना था जिसमें सत्ता शान ख़ानदान के
ही किसी आदमी को हस्तांतरित होता था। और हज़रत अली (रज़ि॰), पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के चचाज़ाद भाई थे)। बाक़ी लोगों का मत था कि इस्लाम की प्रकृति बादशाहत की नहीं, जनमतीय है (जिसे आजकल जनतांत्रिक, डेमोक्रैटिक कहा जाता है)।
इसलिए गुणवत्ता, अनुभव व क्षमता के आधार पर इस्लामी शासक का चयन व स्थापन आम जनता करेगी। फिर हुआ यह कि बहुमत से हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के पहले उत्तराधिकारी हज़रत अबूबक्र (रज़ि॰), उनकी मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी हज़रत उमर (रज़ि॰), उनकी शहादत के बाद उनके उत्तराधिकारी हज़रत उस्मान (रज़ि॰) तथा उनकी शहादत के बाद उनके उत्तराधिकारी हज़रत अली (रज़ि॰) नियुक्त हुए।
हज़रत अली (रज़ि॰) के समर्थक गिरोह को ‘शिआने-अली’ कहा जाने लगा। बाद के वर्षों और सदियों में शिआ मत के विचारों में (राजनीतिक आयाम के साथ-साथ) कुछ वैचारिक, आध्यात्मिक
तथा धार्मिक आयाम भी जुड़ गए और इतिहास के सफ़र में ‘शिआ’ एक विधिवत सम्प्रदाय बन गया। इससे पहले शिआ नाम का कोई सम्प्रदाय न था। ‘सुन्नी’नामक कोई सम्प्रदाय भी सिरे से था ही नहीं।
बीसवीं शताब्दी में पहचान के लिए वे लोग सुन्नी कहे जाने लगे जो शिआ मत के न थे। विश्व भर में लगभग 90 प्रतिशत मुसलमान इसी मत के हैं। भारत में अंग्रेज़ी शासनकाल में ‘फूट डालो और शासन करो (Divide and Rule) का चलन ख़ूब बढ़ाया गया और स्वतंत्रता के बाद कुछ पार्टियों और तत्वों ने अपने-अपने राजनीतिक हित के लिए मुसलमानों के बीच इस मामूली से विभेद को बढ़ावा दिया। अतः सुन्नी व शिआ सम्प्रदायों में टकराव की भी घटनाएं कुछ क्षेत्रों और कुछ नगरों में रह- रहकर घटती रहीं। नादान मुस्लिम जनता (शिआ और सुन्नी आबादी) छिपे हुए शत्रुओं की साज़िश का, रह-रहकर शिकार होती रही। लेकिन दोनों सम्प्रदायों के अनेक अक़्लमन्द, निष्ठावान व प्रबुद्ध रहनुमाओं की कोशिशों से स्थिति में बदलाव और बड़ी हद तक सुधार आ चुका है। वास्तव में इसका श्रेय ‘इस्लाम’की शिक्षाओं को, इस्लाम के मूलाधार और मूल धारणाओं तथा मूल-स्रोतों (कु़रआन, हदीस) को जाता है। इस व्याख्या के बाद एक बहुत बड़ा प्रश्न है जो अपना उत्तर चाहता है। यह वर्तमान वैश्वीय राजनीतिक परिदृश्य (Global political scenario) में, और विशेषतः कुछ शक्तिशाली पाश्चात्य शक्तियों (Western political players) के ख़तरनाक ‘न्यू वल्र्ड ऑर्डर’ की उन नीतियों के परिप्रेक्ष्य में बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है जिनके तहत वे शक्तियां मुस्लिम जगत के कई देशों में बदअमनी, झगड़े-मारकाट, फ़ितना-फ़साद, रक्तपात, विद्वेष, अराजकता और गृह-युद्ध (Civil war) फैलाकर वहां अपना राजनीतिक, सामरिक, वित्तीय व आर्थिक प्रभुत्व और नव-सामराज्य (Neo-imperialism) स्थापित करना तथा उन देशों के प्राकृतिक संसाधनों को लूटना, लूटते रहना चाहती हैं। इसके लिए वह अनेक देशों में ‘शिआ-सुन्नी’टकराव व हिंसा का वातावरण बनाती हैं। आम लोग जो इस टकराव और हिंसा की वास्तविकता से अनजान हैं (और समाचार बनाने, कहानियां गढ़ने, झूठ जनने और इस सारे महा-असत्य को फैलाने का सूचना-तंत्र-
Media Machinery-उन्हीं शक्तियों के अधीन होने के कारण) उनके मन-मस्तिष्क में सहज रूप से यह प्रश्न उठता है कि जब शिआ-सुन्नी एक ही धर्म के अनुयायी, एक ही ‘विशालतर मुस्लिम समुदाय’हैं तो इराक़, सीरिया, ईरान,सऊदी अरब, बहरैन, यमन, पाकिस्तान आदि मुस्लिम देशों में शिओं का शोषण, सुन्नियों के साथ दुर्व्यहार, दोनों का एक-दूसरे की आबादियों, मुहल्लों, मस्जिदों में बम-विस्फोट करना, आदि क्यों है? इसका उत्तर यह है कि वास्तव में यह सब उन्हीं बाहरी शक्तियों की विघटनकारी ख़ुफ़िया एजेंसियों के करतूत हैं जो मुस्लिम-देशों पर अपने प्रभुत्व, शोषण और लूट का महाएजेंडा (Grand agenda) रखती हैं। पूरा सूचना-तंत्र (Media) या तो उन्हीं का है या उनसे अत्यधिक प्रभावित या परोक्ष रूप से उनके अधीन है, अतः विश्व की आम जनता को न तो हक़ीक़त का पता चल पाता है न उन शक्तियों के करतूतों और अस्ल एजेंडे का।
यह है उस शिआ-सुन्नी विभेद की वास्तविकता जो बहुत ही सतही (Superficial) है; और यह है उस शिआ-सुन्नी विद्वेष की वास्तविकता जो कुछ चुट-पुट घटनाओं व नगण्य अपवादों (Exceptions) को छोड़कर लगभगपूरी तरह नामौजूद (non-existant) है लेकिन इस्लाम के शत्रु और मुस्लिम समुदाय के दुष्चिंतक लोग इसमें अतिशयोक्ति (Exaggeration) करके, इस्लाम की छवि बिगाड़ने तथा मुस्लिम समुदाय के प्रति चरित्र हनन व बदनामी का घोर प्रयास करते रहे हैं। और दूसरे तो दूसरे, स्वयं बहुत से नादान मुसलमान भी इस प्रयास से प्रभावित हो जाते हैं। नादानी के चलते, अविश्वास व दुर्भावना के गर्म वातावरण का तापमान, साज़िशी लोग जब कुछ और बढ़ाकर कोई चिनगारी भड़का देते हैं तो वह देखते-देखते धधक कर शोला बन जाती है। वर्तमान स्थिति यह है कि मुस्लिम समुदाय इन साज़िशों को समझ कर, सचेत व आत्मसंयमी हो गया है।
लेखन : फ़ारूक़ खान