यह डर इस वजह से है कि लोगों को शरिया के नाम पर भ्रमित किया जाता है लोगों के व्यक्तिगत कृत्यों को इस्लाम से जोड़ कर शरिया का नाम दे दिया जाता है जिससे भ्र्म की स्थिति बन जाती है और लोग शरिय को कोई ज़ुल्म करने वाला क़ानून शास्त्र समझने लगते है.. जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल उलट है… इस बात से भी इन्कार नहीं कि ख़ुद कुछ मुसलमान अपने व्यक्तिगत व सांसारिक लाभ के लिए अपने कृत्यों को धर्म की आड़ लेकर शरियत का नाम दे देते हैं…
शरिया एक अरबी शब्द है जिसका मतलब है – अल्लाह का दिखाया रास्ता और उसके बनाए हुए नियम. क़ुरान के मुताबिक शरिया सिर्फ़ एक क़ानून व्यवस्था ही नहीं बल्कि पूरी जीवन शैली के लिए नियम निर्धारित करता है. ठीक वैसे ही जैसे बाइबिल में ईसाइयों के लिए एक नैतिक व्यवस्था बयान की गई है.
यानी कुल मिलाकर शरीयत उस समुच्चय नीति को कहते हैं, जो इस्लामी कानूनी परम्पराओं और इस्लामी व्यक्तिगत और नैतिक आचरणों पर आधारित होती है।
इस तरह कुरान में उल्लेखित और अलिखित रीति-रिवाज को हम शरीयत कह सकते हैं। यह एक तरह से उस समाज के मनुष्य की व्यवहारिक समस्याओं को सुलझाने के रूप में देखे गए।शरीयत इस्लाम के भीतर सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से जीने के लिए कायदों की व्याख्या करता है। यह बताता है कि इन तमाम पहलुओं के बीच एक मुसलमान को कैसे जीवन का निर्वहन करना चाहिए।
.हर समाज और धर्म के भीतर लोगों के रहने के तौर-तरीके, नियम कायदे होते हैं। शरीयत इस्लामिक समाज के भीतर रहने के उन्हीं नियमों का एक समूह है, जिससे पूरी दुनिया में इस्लामिक समाज संचालित होता है।
भारत की जहां तक बात है, भारतीय संविधान में सभी धर्मों, जातियों के लोगों को जीने के समान अधिकारी दिए गए हैं, लेकिन जहां तक इस्लाम के अनुयायियों की बात है तो, मुसलमानों के घरेलू, पारिवारिक, उसमें भी खासकर शादी, तलाक, बच्चों से संबंधित मामलों और पति-पत्नी, माता-पिता के बीच सभी मामलों का शरीयत कानून के हिसाब से ही समाधान निकाला जाता है। भारतीय कानून उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
वैसे तो मुसलमान क़ुरान में बताए हुए ज़्यादातर नियमों का पालन करते हैं, लेकिन कुछ देशों ने शरिया को क़ानूनी मान्यता दे दी है. इन देशों में शरिया को लागू करने की ज़िम्मेदारी
अदालतों पर होती है.
इस्लामी क़ानून के दरअसल दो हिस्से हैं –
एक शरिया और दूसरा फ़िक़. शरिया को पवित्र इस्लामी क़ानून माना जाता है और फ़िक़ होता है इस्लामी न्याय व्यवस्था.
लेखन: फ़ारूक़ खान