आमतौर पर तो यही समझा जाता है की इस्लाम 1400 वर्ष पूर्व का धर्म है। परंतु कुरआन के अनुसार इस्लाम सबसे प्राचीनतम धर्म है जिसका अनुसरण सर्वप्रथम सबसे पहले इंसान यानि हज़रत आदम एवं उनकी पत्नी हज़रत हव्वा ने किया था। धर्म के इतिहास को जब हम कुरआन की रोशनी मे देखते है तो मालूम होता है की वास्तव मे धर्म सिर्फ इस्लाम ही है बाकी जितने भी धर्म है वो या तो किसी दार्शनिक नज़रिये से निकले हैं या फिर वो मूल इस्लाम धर्म के फिरके हैं।
कुरआन ऐलान करता है, “शुरू मे सब लोग एक ही तरीके पर थे। )फिर यह हालत बाक़ी न रही और विभेद प्रकट हुए( तब अल्लाह ने नबियों को भेजा, जो सीधे मार्ग पर चलने पर शुभसूचना देने वाले और टेढ़ी चाल के परिणामो से डरानवाले थे; और उनके साथ सत्य पर आधारित किताब उतारी, ताकि लोगों के बीच जो विभेद उत्पन्न हो गए थे, उनका फैसला करें – (और इन विभेदो के प्रकट होने का कारण यह न था की शुरू मे लोगों को सत्य का ज्ञान कराया ही नहीं गया था। नहीं !) विभेद उन लोगों ने किया, जिनहे सत्य का ज्ञान दिया जा चुका था। उन्होने स्पष्ट आदेश पा लेने के बाद केवल इसलिए सत्य को छोड़कर विभिन्न रास्ते निकाले की वे परस्पर ज़्यादती करना चाहते थे – अतः जिन लोगों ने पैगंबरों को माना, उन्हें अल्लाह ने अपनी अनुमति से उस सत्य का रास्ता दिखा दिया, जिसमे लोगों ने विभेद किया था। अल्लाह जिसे चाहता है सीधा मार्ग दिखा देता है। [कुरआन 2:213]
इसके अतिरिक्त कुरआन मे आता है , “दीन (धर्म) तो अल्लाह की स्पष्ट में इस्लाम ही है। जिन्हें किताब दी गई थी, उन्होंने तो इसमें इसके पश्चात विभेद किया कि ज्ञान उनके पास आ चुका था। ऐसा उन्होंने परस्पर दुराग्रह के कारण किया। जो अल्लाह की आयतों का इनकार करेगा तो अल्लाह भी जल्द हिसाब लेनेवाला है। [कुरआन 3:19]
हज़रत मुहम्मद साहब का मर्तबा इस्लाम के प्रवर्त्तक का नहीं है बल्कि इस्लाम के नवजीवनदाता का है। खुद हज़रत मुहम्मद साहब ने अपने आप को किसी नए धर्म का संस्थापक नहीं बताया बल्कि उसी “दीन ए कय्यिम (सनातन धर्म)” का जो हमेशा से ईश्वर के संदेष्टाओं का धर्म रहा है उसका प्रचारक बताया है। हज़रत मुहम्मद से पहले जो भी पैगंबर इस दुनिया मे आए जैसे की हज़रत आदम (स्वयंभु मनु), हज़रत नूह (महाजल प्लावन वाले मनु), हज़रत इब्राहीम, हज़रत मूसा, हज़रत दावूद, हज़रत ईसा (यीशु) इत्यादि (सब पर अल्लाह की सलामती हो) सभी का दीन इस्लाम (यानि ईश्वर का आज्ञापालन) ही था।
कुरआन स्पष्ट तौर पर कहता है, उसने तुम्हारे लिए दीन का वही रास्ता मुक़र्रर किया जिस (पर चलने का) नूह को हुक्म दिया था और (ए रसूल) उसी की हमने तुम्हारे पास वही (प्रकाशना) भेजी है और उसी का इब्राहीम और मूसा और ईसा को भी हुक्म दिया था (वह) ये (है कि) दीन को क़ायम रखना और उसमे तफ़रका न डालना। बहुदेववादियों को वह चीज़ बहुत अप्रिय है, जिसकी ओर तुम उन्हें बुलाते हो। अल्लाह जिसे चाहता है अपनी ओर छाँट लेता है और अपनी ओर का मार्ग उसी को दिखाता है जो उसकी ओर रुजू करता है । [कुरआन 42:13]
एक और जगह कुरआन मे स्पष्ट तौर पर आता है, “(ऐ रसूल) हमने तुम्हारे पास (भी) तो इसी तरह ‘वही’ भेजी जिस तरह नूह और उसके बाद वाले पैग़म्बरों पर भेजी थी और जिस तरह इबराहीम और इस्माइल और इसहाक़ और याक़ूब और औलादे याक़ूब व ईसा व अय्यूब व युनुस व हारून व सुलेमान के पास ‘वही’ भेजी थी और हमने दाऊद को ज़ुबूर अता की। जिनका हाल हमने तुमसे पहले ही बयान कर दिया और बहुत से ऐसे रसूल (भेजे) जिनका हाल तुमसे बयान नहीं किया और ख़ुदा ने मूसा से (बहुत सी) बातें भी कीं । [कुरआन 4:163-64]
कुरआन के अनुसार हज़रत मुहम्मद साहब इस्लाम के पहले नबी (संदेष्टा) नहीं बल्कि आखरी नबी है। और तो और इस दुनिया मे सबसे पहले मुस्लिम भी हज़रत मुहम्मद नहीं बल्कि इंसानियत के पिता हज़रत आदम और उनकी पत्नी हज़रत हव्वा हैं। इस्लाम मूलतः ईश्वर के आज्ञापालन का नाम है। इस परिभाषा के अनुसार, इतिहास मे जिस जिस इंसान ने भी एक ईश्वर के स्वामित्व को कुबूल करके उसकी आज्ञा का पालन किया वो शख्स मुस्लिम अर्थात ईश्वर का आज्ञाकारी ही कहलता है। अर्थात हज़रत आदम, हज़रत नूह, हज़रत इब्राहीम, हज़रत मूसा, हज़रत दावूद, हज़रत ईसा इत्यादि सभीपैगंबर मुस्लिम (ईश्वर कि आज्ञापालन करने वाले ) ही थे।
कुरआन मे आता है, “कौन है जो इबराहीम के पंथ से मुँह मोड़े सिवाय उसके जिसने स्वयं को पतित कर लिया? और उसे तो हमने दुनिया में चुन लिया था और निस्संदेह आख़िरत में उसकी गणना योग्य लोगों में होगी । क्योंकि जब उससे रब ने कहा, “मुस्लिम (आज्ञाकारी) हो जा।” उसने कहा, “मैं सारे संसार के रब का मुस्लिम हो गया।” और इसी की वसीयत इबराहीम ने अपने बेटों को की और याक़ूब ने भी (अपनी सन्तानों को की) कि, “ऐ मेरे बेटों! अल्लाह ने तुम्हारे लिए यही दीन (धर्म) चुना है, तो इस्लाम (ईश-आज्ञापालन) को अतिरिक्त किसी और दशा में तुम्हारी मृत्यु न हो।” (क्या तुम इबराहीम के वसीयत करते समय मौजूद थे? या तुम मौजूद थे जब याक़ूब की मृत्यु का समय आया? जब उसने बेटों से कहा, “तुम मेरे पश्चात किसकी इबादत करोगे?” उन्होंने कहा, “हम आपके इष्ट-पूज्य और आपके पूर्वज इबराहीम और इसमाईल और इसहाक़ के इष्ट-पूज्य की बन्दगी करेंगे – जो अकेला इष्ट-पूज्य है, और हम उसी के आज्ञाकारी (मुस्लिम) हैं।” वह एक गिरोह था जो गुज़र चुका, जो कुछ उसने कमाया वह उसका है, और जो कुछ तुमने कमाया वह तुम्हारा है। और जो कुछ वे करते रहे उसके विषय में तुमसे कोई पूछताछ न की जाएगी। [कुरआन 2:130-134]
पैगंबर हज़रत युसुफ के बारे मे कुरआन मे आता है कि उन्होने कहा , मेरे रब! तुने मुझे राज्य प्रदान किया और मुझे घटनाओं और बातों के निष्कर्ष तक पहुँचना सिखाया। आकाश और धरती के पैदा करनेवाले! दुनिया और आख़िरत में तू ही मेरा संरक्षक मित्र है। तू मुझे इस दशा से उठा कि मैं मुस्लिम (आज्ञाकारी) हूँ और मुझे अच्छे लोगों के साथ मिला। [कुरआन 12:101]
पैगंबर हज़रत ईसा के बारे मे कुरआन मे आता है, “फिर जब ईसा को उनके अविश्वास और इनकार का आभास हुआ तो उसने कहा, “कौन अल्लाह की ओर बढ़ने में मेरा सहायक होता है?” हवारियों ने कहा, “हम अल्लाह के सहायक हैं। हम अल्लाह पर ईमान लाए और गवाह रहिए कि हम मुस्लिम है । [कुरआन 3:52]
मौलाना सय्य्द अबुल आला साहब मौदूदि अपनी पुस्तक “इस्लाम का आरंभ” में लिखते है,
इस्लाम की शुरुवात उसी वक़्त से है, जब से इंसान की शुरुआत हुई है। इस्लाम के मायने हैं, “खुदा के हुक्म का पालन”। और इस तरह यह इंसान का पैदाइशी धर्म है। क्योंकि खुदा ही इंसान का पैदा करने वाला और पालने वाला है। इंसान का असल काम यही है की वह अपने पैदा करने वाले के हुक्म क पालन करे। जिस दिन खुदा ने सब से पहले इंसान यानि हज़रत आदम और उन की बीवी हज़रत हव्वा को ज़मीन पर उतारा उसी दिन उसने उन्हे बता दिया की देखो: “तुम मेरे बंदे हो और में तुम्हारा मालिक हूँ। तुम्हारे लिए सही तरीका यह है की तुम मेरे बताए हुए रास्ते पर चलो। जिस चीज़ का मै हुक्म दूँ उसे मानो और जिस चीज़ से मै मना करूँ, उससे रुक जाओ। अगर तुम ऐसा करोगे तो मै तुम से राज़ी और खुश रहूँगा और तुम्हें इनाम दूंगा। लेकिन अगर तुम मेरे हुक्म को नहीं मानोगे तो मै तुम से नाराज़ हूंगा और तुम्हें सज़ा दूँगा”। बस यही इस्लाम की शुरुआत थी।
बाबा आदम और अम्मा हव्वा ने यही बात अपनी औलाद को सिखाई। कुछ दिन तक तो सब लोग इस तरीके पर चलते रहे। फिर उन में से ऐसे लोग पैदा होने लगे, जिनहोने अपने पैदा करने वाले का हुक्म मानना छोड़ दिया। किसी ने दूसरों को खुदा बना लिया, कोई खुद खुदा बन बैठा, और किसी ने कहा की मै आज़ाद हूँ। जो कुछ मन मे आएगा करूंगा, चाहे खुदा का हुक्म कुछ भी हो। इस तरह दुनिया मे कुफ़्र की शुरुआत हुई और कुफ़्र का मतलब होता है “खुदा का हुक्म मानने से इंकार करना”।
जब इन्सानो में कुफ़्र बढ़ता ही चला गया और इस की वजह से ज़ुल्म, अत्याचार, बिगाड़ और बुराईया बहुत बढ़ने लगीं तो अल्लाह तआला ने अपने नेक बंदो को इस काम पर लगाया की वे इन बिगड़े हुए लोगों को समझाएँ और उन को फिर से अल्लाह तआला का फर्माबरदार बनाने की कोशिश करें। ये नेक बंदे नबी और पैगंबर कहलाते है। ये पैगंबर कभी थोड़े और कभी ज़्यादा दिनों के बाद दुनिया के अलग अलग देशों और क़ौमों मे आते रहे। ये सब बड़े सच्चे, ईमानदार और पाकीज़ा लोग थे। इन सब ने एक ही मजहब की तालीम दी। और वह यही इस्लाम था। आप ने हज़रत नूह, हज़रत इब्राहिम, हज़रत मूसा और हज़रत ईसा (अलै0) के नाम तो ज़रूर सुने होंगे, ये सब खुदा के पैगंबर थे और इन के अलावा हजारो पैगंबर और भी दुनिया में आए हैं।
पिछले कई हज़ार साल की तारीख़ में हमेशा यही होता रहा है कि जब कुफ़्र ज़्यादा बढ़ा, तो किसी बुजुर्ग और महापुरुष को पैगंबर बना कर भेजा गया। उन्होने आकर लोगों को कुफ़्र और नास्तिकता से रोकने और इस्लाम कि तरफ बुलाने कि कोशिश की। कुछ लोग उनके समझाने से मान गये और कुछ अपने कुफ़्र पर अड़े रहे। जिन लोगों ने मान लिया वह मुसलमान कहलाए और उन्होने अपने पैगंबर से बेहतरीन अखलाक और अच्छे आचार सीख कर दुनिया में नेकी और भलाई फैलाना शुरू की। फिर इन मुसलमानो की औलाद धीरे धीरे खुद इस्लाम को भूल कर कुफ़्र के चक्कर में फँसती चली गई और किसी दूसरे पैगंबर ने आकर नए सिरे से इस्लाम को ताज़ा किया। यह सिलसिला जब हजारो साल तक चलता रहा और इस्लाम को बार बार ताज़ा करने के बावजूद फिर भुला दिया गया तो अल्लाह ताला ने सबसे आखिर में हज़रत मुहम्मद को पैगंबर बना कर भेजा। आप ने इसलाम कों ऐसा ताज़ा किया कि आज तक वह क़ायम है और क़ियामत तक क़ायम रहेगा।
हवाला: इस्लाम का आरंभ, मौलाना सय्यद अबुल आला मौदूदि
लेखन : फ़ारूक़ खान