इस्लामिक बैंकिंग क़ुरान बेस्ड ही होती है ।ब्याज रहित क़र्ज़ देनें की व्यवस्था जिस अनुसार यह वित्तीय प्रणाली कार्य करती है इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था में माना जाता है कि किसी को कर्ज उसके आर्थिक उत्थान के लिए दिया जाना चाहिए, उससे कमाने के लिए नहीं। लेकिन मौजूदा कर्ज नीति कर्ज लेने वाले से कमाने पर आधारित है। बैंक इसके लिए यह तर्क देते हैं कि अगर वह कर्ज देकर ब्याज नहीं लेंगे तो अपने आपको कैसे बरकरार रख पाएंगे। लेकिन इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था बजाय ब्याज लेने के लाभ के एक हिस्से पर साझीदारी करती है और उससे होने वाली आय के आधार पर अपने आप का आस्तत्व कायम रखती है। इस्लाम में एक नियम है कि उसके मानने वालों की साल में खाने-पीने की जरूरतों को पूरा करने के बाद जो दौलत बचती है, उस बची हुई दौलत में से ढाई फीसदी बतौर कर देना पड़ेगा जिसे जकात कहते हैं। इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था इस जकात के जरिए भी अपना फलना-फूलना जारी रखती है।मोटे तौर पर यही है इस्लामिक बैंकिंग प्रणाली….
(फ़ारूक़ खान )