सबसे पहले तो जान लीजये कि इस्लाम या मुसलमानों में गैर मुसलमानों पर इस्लाम का प्रभुत्व स्थापित करने की कोई रणनीति ना कभी थी और ना है और ना कभी होगी, क्यूँ कि इस्लाम में ऐसा कोई हुक्म ही नहीं है. ये गलत फहमियां कुछ दंगाई आतंवादियों की फैलाई हुई हैं. गैर मुस्लिमों के बारे में इस्लाम में मुसलामनों पर बस इतना काम फर्ज़ किया है कि गैर मुस्लिमों को मुहब्बत इज्ज़त और समझदारी के साथ उनके रब का जो पैगाम उनके पास है वो पहुंचा देना है. क्यूँ कि ये पैगाम गैर मुस्लिमों का हक भी है और अमानत भी. हर मुसलामन को अल्लाह ने दाई (दावत देने वाला) बनाया है, अब ज़ाहिर है दावत मुहब्बत ही से दी जा सकती है और किसी तरह से नहीं.
दूसरी बात अज़ान मुसलमानों को नमाज़ के लिए बुलाने का एक एलान करने का तरीका है. इसका मकसद सिर्फ मुसलमानों को बुलाना है. ज़ाहिर है ऐलान ज़ोर की आवाज़ ही से होता है ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँच सके, पहले जब लाउडस्पीकर नहीं होते थे तो अज़ान देने वाले मस्जिद की छत पर चढ़ कर अपनी पूरी ताकत से अज़ान देते थे. फिर लाउडस्पीकर आया तो उनका काम आसान हो गया इसलिए इसका इस्तिमाल किया जाने लगा.
लाउडस्पीकर इस्लाम का कोई हिस्सा नहीं बस आज जब कि वाहनों वगैरह का शोर बहुत होता है, इसलिए ये आज की ज़रूरत बन गया है.
लेकिन ध्वनी प्रदूषण की वजह से मैं इस बात का पूरी तरह समर्थन करता हूँ कि हर धार्मिक स्थल में लाउडस्पीकर पर पूरी तरह पाबन्दी होनी चाहिये, लेकिन सब धर्मों के लिए हो ना कि सिर्फ मस्जिदों के लिए.
आप ने कहा की गैर मुस्लिमों में सिर्फ खास दिनों में लाउडस्पीकर का इस्तिमाल होता है. माफ़ कीजये ये बात आप की सब के लिए बिलकुल गलत. क्यों कि मेरे घर से कुछ दूर ही एक मंदिर है जहाँ रोज़ सुबह सूरज निकलने से पहले कोई आधा घंटे के लिए बहुत तेज़ आवाज़ में भक्ति गीत के टेप बजा कर छोड़ दिए जाते हैं. और ये रोज़ होता है और कुछ ख़ास मोकों पर तो पूरी रात होता है.
तो किसी भी धर्म में किसी को तकलीफ देना किसी भी तरह जायज़ नहीं है, इसलिए मैं आप का समर्थन करता हूँ कि सभी धार्मिक स्धलों पर लाउडस्पीकर पर पाबन्दी होनी चाहिये. और जहाँ गैरमुस्लिम रहते हैं वहां की मस्जिद वालों को तो इसका खास ध्यान रखना चाहिये.
लेखन :मुशर्रफ़ अहमद