अगर कोई मुसलिम अपना धर्म बदल लेता है तो इस्लाम के मुतबिक़् उसके साथ कैसा सुलुक़् किया जाता है

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अल्लाह ने ये दुनियां इन्तिहान के उसूल पर बनाई है, और इम्तिहान के उसूल पर ही वो इसे चला रहा है.
वही खुदा है जिसने ज़िन्दगी और मौत का ये निज़ाम बनाया है ताकि तुम्हे आज़माए कि तुम से कौन अमल (कर्म) में अच्छा है… (सूरेह 67 आयत 2).
और इम्तिहान की सबसे पहली शर्त ही ये होती है कि सही बात बता कर गलत करने कि आजादी दी जाए, इसलिए इस मामले में भी ज़ाहिर है इस्लाम यही चाहेगा कि मुसलमान उलेमा उसे मुमकिन हद तक समझाने की कोशिश करें, उसके जो भी शक और सवाल हैं उनको हल किया जाए, लेकिन कुरआन इस मसले में बिलकुल स्पष्ट है कि किसी पर दीन के मामले में कोई ज़बरदस्ती नहीं की जानी चाहिये. मिसाल के तौर पर सूरेह 2 आयात 256 दीन में किसी तरह की जबरदस्ती नहीं क्योंकि हिदायत गुमराही से (अलग) ज़ाहिर हो चुकी….
सूरेह 18 आयत 29 और (ऐ रसूल) तुम कह दों कि सच्ची बात तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से (नाज़िल हो चुकी है) बस जो चाहे माने और जो चाहे न माने….
सूरेह 10 आयत 99 और (ऐ पैग़म्बर) अगर तेरा परवरदिगार (ज़बरदस्ती करना) चाहता तो जितने लोग ज़मीन पर हैं सबके सब ईमान ले आते तो क्या तुम लोगों पर ज़बरदस्ती करना चाहते हो ताकि सबके सब ईमानदार हो जाएँ हालॉकि किसी शख़्स को ये एख्तेयार नहीं.
इन आयातों से साफ़ ज़ाहिर है कि कुफ्र, शिर्क और इर्तिदाद (Apostasy) बेशक बहुत बड़े गुनाह हैं लेकिन इनकी सज़ा देने का हक इंसानों को नहीं है. मुसलमानों का फर्ज़ सिर्फ सही बात अच्छे अंदाज़ में पहुँचा देने का है, कोई माने या ना माने इसकी जुम्मेदारी ना मुसलमानों पर है और ना रसूलों पर होती थी. सूरेह 17 आयत 54 और (ऐ रसूल) हमने तुमको उन लोगों पर दारोगा बनाकर नहीं भेजा है…
सूरेह 35 आयत 23 (ऐ रसूल) आप तो बस साफ साफ डर सुनाने वाले हैं. वगैरह ये तो इस्लाम की बात थी लेकिन समाज की बात की जाए तो दुनियां में ऐसी बहुत कम जगह हैं जहाँ कोई समाज किसी को अपना धर्म बदलने को कोई बड़ा मसला नहीं समझता है, आम तौर पर अपना धर्म बदलने वाले को उसका समाज माफ़ नहीं करता और उसपर हर तरह का ज़ुल्म ज़बरदस्ती करने को जायज़ समझता है, उसके अपने ही उसके सबसे बड़े दुश्मन हो जाते हैं. ऐसा होना नहीं चाहिये लेकिन यही सच्चाई है कि ऐसा ही होता है.

लेखन : मुशर्रफ़ अहमद

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