जिस शब्द का इस आयत में अर्थ “कब्ज़ा” किया गया है, वो अरबी शब्द “मलकत” है, इसका अर्थ है किसी पर स्वामित्व प्राप्त होना…. बहुत से गैरमुस्लिम भाई इस आयत पर ये अनुमान लगाते हैं कि ये युद्ध में मुसलमानों द्वारा शत्रु पक्ष की आज़ाद स्त्रियों को गुलाम बनाने का वर्णन है… ऐसे भाइयों को हम बताना चाहते हैं कि इस्लाम ग़ुलामी प्रथा को ख़त्म करने आया था, न कि नए ग़ुलाम बनाने के हुक़्म देने,
….ये तो अरब के काफिरों का तरीक़ा था कि वो जंग में हारने वाले आज़ाद लोगों को पकड़ कर हमेशा के लिए ग़ुलाम बना लेते थे आज़ाद स्त्रियों को गुलाम बनाकर उनसे वेश्यावृत्ति करवाते थे..
…… क़ुरआन में सूरह मोहम्मद में अल्लाह ने इस बुरी प्रथा को ख़त्म करते हुए मुसलमानों को हुक़्म दिया कि “जंग के कैदियों को या तो फिदया लेकर रिहा कर दो, या एहसान के तौर पर बिना कोई क़ीमत लिए ही उन्हें रिहा कर दो”….(47:4)
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….तो तमाम अहादीस से भी ये पता चलता है कि आप सल्ल० ने जंग में क़ैद किये गए तमाम पुरुषों और औरतों को बाइज़्ज़त आज़ाद कर दिया था, आज़ाद होने के बाद उनमें से कई औरतों ने इस्लाम भी कुबूल किया है, उनमें एक प्रसिद्ध उदाहरण हज़रत जुवैरिया बिन्त हारिस रज़ि० का है, जिन्हें जब नबी सल्ल० ने आज़ाद करने का हुक्म दिया तो हज़रत जुवैरिया रज़ि० ने इस्लाम क़ुबूल करके नबी सल्ल० से निकाह कर लिया था…!!
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….. जो बांदियाँ क़ुरआन में मुसलमानों के लिए हलाल बताई गई हैं, दरअसल वो कभी आज़ाद रही औरतें नही थीं, बल्कि ये कुफ़्फ़ार ए अरब की वो बांदियाँ थीं, जो कुफ़्फ़ार के हाथों नस्ल दर नस्ल से गुलाम बनी हुई थीं, जिन्हें कई बार खरीदा बेचा गया था, और उनकी इज़्ज़त को सलामत नही रखा था, ऐसी बांदियों के लिये अल्लाह ने मुसलमानों को हुक़्म दिया कि वो जब मुसलमानों के कब्ज़े में आएं तो मुसलमान उन बाँदियों की सहमति मिल जाने के बाद उनको अपनी पत्नी का दर्जा दे दें, उन्हें एक इज़्ज़त की ज़िंदगी दे दें और उनके जीवन भर के भरण पोषण का सहारा बन जाएं… इसकी मिसाल मारिया किबतिया से ली जा सकती है जो या तो नस्लन ग़ुलाम थीं, या बहुत कमसिन उम्र में ग़ुलाम बना दी गई थीं… इन्हें नबी सल्ल० के पास नज़राने के तौर पर भेजा गया था, और आप सल्ल० ने उन्हें गुलाम न रखते हुए अपनी पत्नी का दर्जा दे दिया था !!
…. आपके मन मे ये प्रश्न उठता होगा कि अगर इस्लाम मे मानवाधिकारों का इतना ही ख्याल रखा गया है तो मुस्लिमों के लिए तत्काल प्रभाव से गुलामों को रखना प्रतिबंधित क्यों नही कर दिया गया, जिससे दासप्रथा तत्काल खत्म हो जाती..?
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… दरअसल उस समय पूरे विश्व मे लोगों को गुलाम बनाकर रखने की प्रथा चरम पर थी, और दुनिया के ताकतवर लोगों को ये प्रथा इतनी प्रिय थी कि अगर मुसलमान इस प्रथा का विरोध करते तो ताकतवर लोग मुसलमानों के साथ युद्ध और हिंसा पर उतारू हो जाते, …. सो मुसलमानों द्वारा गुलामों को ख़रीदने पर रोक न लगाने के इस्लाम के फैसले के पीछे एक बहुत बड़ा कूटनीतिक उद्देश्य ये था कि मुसलमान लोग बिना किसी युद्ध या विरोध, शांतिपूर्ण ढंग से उन गुलाम स्त्री पुरूषों को खरीदकर उन्हें आज़ाद करवा सकें, इस व्यवस्था का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण हजरत बिलाल रज़ि. का है ….. हज़रत बिलाल रज़ि. को उनपर घोर अत्याचार करने वाले उनके काफिर मालिक से खरीदकर हजरत अबूबक्र रज़ि. ने आज़ाद करवाया था
लेखन : ज़िया इम्तियाज़