युध्द में पकड़ी गई औरतो को माले गनीमत समझकर लौंडी (आज के समय मे रखैल) बनाना और जी भर जाए तो बेच देना, कितना उचीत है ? अगर उनको सहारा ही देना था तो उसको बहन भी बनाया जा सकता था ।

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दास प्रथा एक पुरानी प्रथा थी जो भारत सहित तमाम दुनिया में फैली हुई थी. यह शुरू तो कभी जंगी कैदियों से हुई थी क्यों कि पहले जेल नहीं होती थी तो जंग में जो दुश्मनों के फ़ौजी कैदी होते थे उनको या तो क़त्ल कर दिया जाता था या अगर वो जान बचाना चाहे तो गुलाम बना लिया जाता था. लेकिन बाद में इसका गैर अख्लाकी (अनैतिक) इस्तिमाल शुरू हो गया और लोग वैसे ही दूसरे कबीले के आज़ाद आम लोगों को पकड़ कर भी बैंचने लगे. काफिले लूटे जाते तो उनको भी डाकू गुलाम बना लेते थे. कोई किसी को अकेला मिल जाता तो उसको भी गुलाम बना लिया जाता था. कुरआन में आपने हज़रत युसूफ (अ) का किस्सा सुना ही होगा वे एक काफिले को रास्ते एक कुए में पड़े मिले थे तो जिसे मिले थे उसने उन्हें गुलाम बना कर बेच दिया. बाद में मिस्र में इनकी पूरी कौम को गुलाम बना लिया गया था, यही वो गुलाम कौम थी जिसे हज़रत मूसा (अ) ने आज़ाद कराया और फिर बाद में यह यहूदी कहलाए. यही पूरी दुनिया का हाल था.
जंग में अपने फोजियों के साथ औरतें भी जाया करती थी जो उनकी हिम्मत बढ़ाने के लिए गीत गाने, दुश्मन फोजियों को बद्दुआएँ देने, अपने लोगों के लिए खाना बनाने ज़ख्मियों की मरहम पट्टी करने और जंग के मैदान में उनकी मदद करने जैसे काम करती थी.
हरी हुई फ़ौज के बचे हुए लोगों को गुलाम बनालिया जाता था इस लिए इन गुलामों में औरतें भी होती थी और जो मर्द उनको खरीदता था वो उसका मालिक होता था वो उससे बिना शादी किये शारीरिक सम्बंध बनाने से ले कर घर के काम तक सब करवा सकता था.
यह कारोबार बहुत ज़्यादा बढ़ा हुआ था क्यों कि पहले ज़माने में छोटे छोटे राज्य और कबीले होते थे और उन में जंगे हर रोज़ होती थी और डाकू भी हर जगह बड़ी तादाद में होते थे. इसलिए यह बहुत सस्ते मिल जाते थे और एक घर में चार पांच गुलाम होना एक आम बात थी, लेकिन जो अमीर होता था तो वो गुलामों की पूरी टोली रखता था. गुलामो की रोटी, कपड़ा, मकान और बुढ़ापे में उनका बोझ यह सब मालिकों के जुम्मे होता था. जिस फीमेल गुलाम के मालिक को उसमे कोई रूचि ना होती तो वो उसकी अपने दूसरे गुलाम से शादी कर देता था इसके नतीजे में जो बच्चे पैदा होते वो भी अपने माँ बाप के मालिक के गुलाम ही माने जाते थे. गुलामी के यही हालात थे जब कुरआन नाज़िल हुआ.
उस ज़माने में एक दम से सब गुलामों को आजाद करना सही ना होता क्यों कि इतनी बड़ी तादाद का अचानक बे घर और बे रोज़गार होना समाज में अपराधों को बढ़ा देता और बूढ़े गुलाम भूके मरते. लिहाज़ा कुरआन ने शराब की तरह इसे भी धीरे धीरे ख़त्म करने का रास्ता अपनाया.
इसमें कई स्टैप लिए गए सबसे पहले तो किसी आज़ाद को ज़बरदस्ती गुलाम बनाना हराम किया गया और इसे ज़ुल्म माना गया.
इसके बाद गुमालों को यह हक दिया गया कि जो उनमे से आज़ाद होना चाहे वो अपने मालिक से सौदा तय करले अपनी कीमत लगा ले और उसके बाद खुद महनत मजदूरी कर के उधार लेकर के वो पैसा मालिक को दे कर आज़ाद हो जाए. और मालिकों को मजबूर किया गया कि जो गुलाम ऐसा करना चाहे उसे करने की इजाजत दो.(देखये नूर 33) उधर मुसलमानों को और सरकारी खज़ाने को भी हुक्म दिया कि ऐसे गुलामों की जो आज़ाद होने की कोशिशि कर रहे हैं पैसे दे कर मदद करें. (देखये सूरेह तौबा 60) और मुसलमान मर्दों से कहा गया कि अगर तुम आज़ाद औरतों से शादी नहीं कर सकते (क्यों उस वक़्त आज़ाद औरते महर बहुत ज़्यादा लेती थी) तो किसी गुलाम खातून से बाकायदा निकाह कर के उन्हें अपनी बीवियां बना लो. (सूरेह निसा 25) कई गुनाह जैसे कसम तोड़ना, एक्सीडेंट करने पर या अपनी बीवी को अपनी माँ कहने के बदले में मुसलमानों को गुलाम आजाद करने का हुक्म हुआ. (सूरेह मायदा 89) गुलाम खरीद कर आज़ाद करने को बहुत बड़ी नेकी करार दिया गया (सूरेह बलद 13) जिससे मुसलमानों में बात बात पर गुलाम खरीद कर आज़ाद करने का रिवाज पैदा हो गया.
फिर गुलामों के हुकूक बढ़ाए जैसे उनको अच्छा खाना अच्छा पहनना, उनसे मुश्किल काम ना कराना, एक दिन में उनकी 70 गलतियां माफ़ करना, उन पर हाथ ना उठाना और अगर उठाया तो उसे आजाद करना पड़ेगा, उन्हें गुलाम ना कहना वगैरह. जिससे उनको रखना मुश्किल हो गया. इसकी तफसील आप को हदीसों में मिल जाएगी.
और आखिर में जंग में दुश्मनों को भी गुलाम बना कर रखने से मना कर दिया गया, हुक्म हुआ कि जंग में कैदियों को या तो पैसे लेकर छोड़ो या एहसान में छोड़ो जिससे आगे यह कारोबार हमेशा के लिए बंद हो जाए. (सूरेह मुहम्मद 4) दुनियां में अब कानूनी तौर पर यह पूरी तरह बंद है और इसे फिर से शुरू करने का किसी को हक नहीं. अगर कोई करता है तो वो इंसानियत पर ज़ुल्म करता है और इस्लाम के खिलाफ करता है.

लेखन: मुशर्रफ़ अहमद

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