यह सवाल काफी दिनों से कई लोगों की तरफ से पूछा गया है इस लिए ज़रूरत महसूस हुई कि इस पर तफसील (विस्तार) से लिखा जाए।
इस मामले में हमारे यहाँ उलेमाओं की दो राय पाई जाती हैं। एक तो ऐसे हैं जो इसे नाजायज़ कहते हैं और दूसरे इसके जायज़ होने के कायल हैं।
आज की पोस्ट में हमारा इरादा यह है कि हम पाठकों के सामने दोनों पक्षों की दलीलें रख दें, फैसला पढ़ने वाले खुद कर लें कि कौनसी राय ज़्यादा सही है और कौनसी नहीं।
(एक अख्लाकी (नैतिक) मसला)
दलीलों के अलावा इस मामले में दो चीजें ऐसी हैं जिनका समझना लोगों के लिए जरूरी है, एक यह कि अंगदान के मसले पर कुरआन और हदीस में सीधे तौर पर कोई बात नहीं की गई है और यह हो भी नहीं सकती थी, क्यूंकि यह चीज तो आज के ज़माने में मैडिकल साइंस में ज़बरदस्त तरक्की के बाद मुमकिन हो सकी है। इसलिए यह सिर्फ एक इज्तिहादी (उलेमाओं की राय का) का मसला है।
दूसरी हकीक़त जिसका समझना ज़्यादा ज़रूरी है वो ये कि इस तरह के इज्तिहादी मुद्दे हक़ व बातिल (सही या गलत) के मसले नहीं हुआ करते। उलेमा (विद्वान) सवाल के जवाब में इमानदारी से रिसर्च करके अपनी अपनी राय बयान कर देते हैं। उसके बाद संबंधित लोगों पर होता है कि वो किस आलिम की राय से मुतमईन (संतुष्ट) हैं। वे दलीलों की बिना पर जिस राय को चाहें अपना लें। यह उनका और उनके रब का आपसी मामला होता है। लेकिन उन्होंने अगर एक राय को गलत समझने के बाद भी सिर्फ इस लिए सही माना क्यों कि वो उनकी अपनी ख्वाहिश (इच्छा) के मुताबिक थी तो उन्हें कल क़यामत के दिन अल्लाह के सामने जवाब देना होगा।
और अगर वे इमानदारी से दलीलों की बुन्याद पर किसी भी एक राय को अपनाते हैं और उससे मुतमईन (संतुष्ट) हैं, तो फिर उन्हें इस मामले में किसी भी तरह गुनाहगार नहीं ठहराया जा सकता। इस चीज़ का बयान करना इस लिए ज़रूरी है क्योंकि हमारे यहाँ कुछ लोगों का ये रवय्या है कि इज्तिहादी मसलों में भी फतवा देने के बाद कुछ उलेमा से इख्तिलाफ (मतभेद) करने वालों की ना सिर्फ नीयतों पर शक किया जाता है बल्कि उनपर गुमराह वगैराह का भी लेबल लगा दिया जाता है। ये तरीका बिलकुल गलत है, ऐसे लोगों को अपने अख़लाक़ (नैतिक मूल्यों) की परवाह करनी चाहिए, और अल्लाह के यहाँ जवाब देने की घड़ी से डरना चाहिए। हमारे नज़दीक (अनुसार) ऐसे इज्तिहादी मसलों को आपसी रंजिश का निशाना नहीं बनाना चाहिए। दोनों तरफ की सारी दलीलों को लोगों के सामने रख कर फैसला उन पर छोड़ा जाना चाहिए। अगर लोग पूछते हैं, तो उन्हें अपनी राय भी देनी चाहिए। लेकिन हर राय का अहतराम (सम्मान) किया जाना चाहिए और लोगों को हक़ देना चाहिए कि वो जिस राय को सही समझें उसे चुने।
(जायज़ मानने वाले और ना जायज़ मानने वाले)
इन उसूली बातों के बाद ये देखते हैं कि इसमें उलेमाओं की राय क्या क्या हैं।
जो लोग अंग दान को जायज़ समझते हैं उनके तर्क की बुन्याद दो चीज़ें हैं।
एक ये कि एक इंसान अपनी मौत के बाद अपने अंग किसी ज़रूरतमंद को देने की वसीयत करता है तो इसके खिलाफ पूरे दीन में ऐसी कोई मज़बूत दलील मौजूद नहीं है जो इसे हराम साबित करती हो।
और दूसरी ये कि ये चीज़ अपने आप में इंसानियत की बहुत बड़ी खिदमत (सेवा) है। बहुत से हालात में तो ये दूसरे इंसान की ज़िन्दगी बचाने का ज़रिया बन जाता है। इसलिए यह जायज़ है और कोई अख्लाकी (नैतिक) या दीनी (धार्मिक) पहलु से इसमें कोई बुराई नहीं है।
इस राय के मुखालिफीन (विरोधी) दूसरी बात से तो कोई इख्तिलाफ (मतभेद) नहीं रखते और न रख सकते हैं कि यह दूसरों के लिए एक फायदा पहुँचाने वाली चीज़ है। मगर जहाँ तक दीनी (धार्मिक) दलीलों का सवाल है तो उनके नज़दीक (अनुसार) दीन में कई बातें ऐसी हैं जो अंगदान के जायज़ होने में रुकावट हैं, और उनसे इन्डारेक्ट तौर पर अंगदान का नाजायज़ होना साबित होता है। वे निम्नलिखित हैं:
(नाजायज़ समझने वालों की दलीलें)
1- अंग दान के नाजायज़ होने की एक वजह यह है कि यह मरने वाले की लाश की बेहुरमती (अपमान) करने जैसा है। यह बात मालूम है कि हमारे दीन (धर्म) में मरने वाले की लाश के अंग काटना जिसे ‘मुसला’ करना कहते हैं हराम है, जैसे हज़रत हमज़ा र. की शहादत के बाद हिन्दा ने उनके शरीर की बेहुरमती (अपमान) की थी। अंगदान में भी मरने वाले के शरीर को ‘मुसला’ किया जाता है। उसके शरीर को काट पीट कर अंग निकाले जाते हैं, इसके बगैर दूसरों को अंग नहीं लगाए जा सकते। इसलिए अंगदान बगैर लाश का ‘मुसला’ किये मुमकिन नहीं जो कि एक हराम काम है। इससे यही नतीएजा निकलता है कि अंगदान भी जायज़ नहीं है।
2- दूसरी दलील जो इसी से निकलती है यह है कि अगर लोगों के अंग इसी तरह काट काट कर निकाले जाते रहे तो एक दिन मरने के बाद दफन करने के लिए भी कुछ नहीं बचेगा।
3- तीसरी दलील यह है कि हमारे शरीर के हम खुद मालिक हैं ही नहीं। हमें यह हक़ नहीं है कि हम उसमे किसी तरह का बदलाव करें। ख़ुदकुशी करना इसी लिए हराम किया गया है। अपने हाथों और पैरों को काटना या शरीर को किसी और तरह का नुक्सान पहुँचाना इसी उसूल पर ना जायज़ है। एक काम जो अपनी ज़िन्दगी में जायज़ नहीं तो मरने के बाद भी जायज़ नहीं हो सकता, इसलिए इस उसूल पर, मरने के बाद अंगदान करने की वसीयत नहीं की सकती।
4- चौथी दलील यह है कि कुछ हदीसों से मालूम होता है कि मरने वाले के शरीर को किसी भी तरह की तकलीफ देना उसे ज़िन्दगी में तकलीफ देने के बराबर है। मरने वाले के शरीर के साथ चीरफाड़ करना और किसी अंग को काटकर निकालना ऐसा ही है जैसे जिन्दा इंसान के शरीर से कोई अंग काट कर निकाला जाए।
5- पांचवी दलील यह है कि इंसान अपनी मौत के बाद भी हकीकत में मरते नहीं हैं, बल्कि क़यामत के दिन दोबारा जिन्दा किये जाएंगे। ऐसे में अगर किसी ने अपना कोई अंग दान कर दिया होगा, मिसाल के लिए आँखों को ले लीजये तो क़यामत के दिन उसकी अपनी आँखें मौजूद नहीं होंगी। इसका नतीजा यह होगा कि फिर वो अंधा ही रह जाएगा, और वहां की ज़िन्दगी में हमेशा अंधा ही रहेगा।
6- छटी दलील जो इसी से निकलती है वह यह है कि फिर अज़ाब और सवाब (इनाम) देने में कयामत के दिन बड़ा मसला पैदा हो जाएगा। मिसाल के तौर पर एक आदमी की आंखें अगर दूसरे आदमी को लगा देंगे तो आंखें देने वाले ने अपनी ज़िन्दगी में अपनी आंखों से जितने गुनाह किए होंगे, जैसे किसी पर बुरी निगाह डालना वगैरह, तो इसका नतीजा आँखें लेने वाले आदमी को भुगतना होगा।
7- सातवीं दलील यह है कि अंगदान के हक में दीन में कोई सुबूत मौजूद नहीं, जितनी दलीलें हैं वो सब अकली हैं और अपनी अकल को हाकिम (सब से ऊपर) समझना गुमराह फिरकों का काम है।
(जवाबी दलीलें)
यह मेरी जानकारी की हद तक उन दलीलों का निचोड़ है जो अंगदान को नाजायज़ समझने वाले पेश करते हैं। लेकिन अंगदान को जायज़ समझने वाले इन सारी दलीलों के जवाब देते हैं, जो कि ये हैं –
1- पहली दलील यानि मरने वाले की लाश की बेहुरमती (अपमान) और काट छांट करना यानी ‘मुसला’ करने के हराम होने के जवाब में वो कहते हैं कि इसका सम्बन्ध इंसान की नीयत से होता है। जो लोग ‘मुसला’ करते हैं वो नफरत और इंतकाम की आग से भरे हुए होते हैं और उनका असल मकसद अपने गुस्से को ठंडा करना और लाश की बेहुरमती (अपमान) करना ही होता है। ज़ाहिर है कि अंग प्रत्यारोपण करने वाले डॉक्टर का नज़रया और नियत इससे बिल्कुल अलग होती है। इसकी मिसाल ऐसी है जैसे डॉक्टर किसी इंसान की जिंदगी में उसका ऑपरेशन करने के लिए उसका कोई अंग काटता है तो उसकी नियत मरीज को नुक्सान पहुँचाने की नहीं होती। हालांकि अगर आँखों ही से देखा जाए तो इसमें नुक्सान का पहलू नज़र आता है। ठीक इसी तरह मरने वाले के शरीर के अंग को किसी की जिंदगी बचाने के लिए निकालना ‘मुसला’ करना नहीं बल्कि एक खिदमत (सेवा) की ही नियत होती है। इसमें बेहुरमती (अपमान) का कोई सवाल नहीं, और हम जानते हैं कि दीन (धर्म) में आमाल (कर्मों) का सारा दारोमदार नीयतों पर होता है। इसलिए जब ओपरेशन में शरीर के साथ काट-छांट करना जायज़ है तो अंगदान के लिए भी जायज़ है।
2- दूसरी दलील यानि ‘अंगदान के बाद दफन करने के लिए कुछ नहीं बचेगा’ का जवाब यह है कि दीन (धर्म) में ये तो ज़रूरी है कि हम अपने मुर्दे दफनाएं लेकिन दफ़नाने के लिए पूरा शरीर ही होना चाहिए दीन में यह जरूरी नहीं है। इसका सुबूत यह है कि जंग में जब एक फोजी अल्लाह के लिए लड़ने जाता है तो कई बार उसके शरीर के कई अंग अलग हो जाते हैं और कभी कभी शरीर का ज़्यादातर हिस्सा बारूद की चपेट में आ कर खत्म (नष्ट) हो जाता है। शहादत के बाद जो कुछ शरीर बचता है वह दफना दिया जाता है। इसी उसूल पर इस मसले को देखना चाहिए।
3- तीसरी दलील यानी ‘हम अपने शरीर के मालिक नहीं हैं’ का जवाब यह है कि इंसान की जान बेशक अल्लाह की है, मगर मैदान-ए-जंग में एक फौजी इसी जान का और अपने शरीर का नुकसान करना अल्लाह की रज़ा के लिए गवारा करता है। यह दीन में सबसे बड़ी नेकी समझी जाती है। इसी तरह किसी की जान बचाने के लिए अच्छे और बहादुर लोग अपनी जान तक कुर्बान कर देते हैं। कोई नहीं कहता है कि उन्होंने यह गलत किया बल्कि इस काम को बड़ी नेकी और कुर्बानी समझा जाता है। इसी तरह अंगदान को समझना चाहिए। यहाँ भी मरने वाला बिना वजह अपने अंग बर्बाद नहीं करता ना बिना वजह खुद को कोई नुकसान पहुंचाना चाहता है बल्कि उसके सामने भी एक बड़ा और अच्छा मकसद होता है। इसलिए यह अल्लाह की अमानत में खयानत नहीं कहा जा सकता, बल्कि एक खिदमत (सेवा) है जो अल्लाह को पसंद है।
4- चौथी दलील यानि ये चीज़ ‘मरने वाले को तकलीफ देने के बराबर है’ तो यह ख्याल कुछ हदीसों को गलत समझने से पैदा हुआ है। उन हदीसों में असल हुक्म मरने वाले की लाश और कब्र को अहतराम (सम्मान) देने का है।
जिन लोगों ने ज़िन्दगी में कभी किसी मुर्दे को गुस्ल देने (नहलाने) और दफ़नाने के समय संभाला हुआ है वो जानते हैं कि ज़रा सी ला परवाही से मुर्दा शरीर ज़मीन पर गिर सकता है, और अगर ऐसा होता है तो मरने वाले के चाहने वालों का ये देख कर बहुत दिल दुखता है। इसलिए इस मामले में लोगों को हस्सास (संवेदनशील) बनाने के लिए अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मुर्दे को जिन्दा से मिसाल दे कर समझाया है कि मुर्दे को तकलीफ देना जिन्दा इंसान को तकलीफ देने के बराबर है। वरना हम सभी जानते हैं कि मौत के एक दो दिन बाद ही अल्लाह का बनाया हुआ कुदरत का कानून जो कुछ मुर्दा शरीर के साथ करता है वो अगर किसी जिन्दा के साथ हो तो वो दर्द की आखरी हद होगी। लेकिन हमें मालूम है कि मरने पर असल वुजूद (व्यक्तित्व) अलग हो चुका होता है और यहाँ जो कुछ होता है वो सिर्फ शरीर के साथ हो रहा होता है। यही नियम अंगदान में भी लागू होता है। असल वुजूद (व्यक्तित्व) को तो फ़रिश्ते मौत के बाद साथ ले जाते हैं पीछे सिर्फ शरीर बचता है जिसे आखिर कार ख़त्म (नष्ट) होना ही है।
5- पांचवी दलील कि मरने वाला अगर अपने अंग दान कर गया तो क़यामत के दिन वह उन अंगों के बगैर उठेगा। इसका जवाब यह है कि यह खयाल आखिरत की जिंदगी को गलत समझने से पैदा हुआ है।
आखिरत के हालात तफसील (विस्तार) के साथ कुरआन और हदीस में बयान हुए हैं। उन बयानों से साफ ज़ाहिर है कि इंसान की शख्सियत (व्यक्तित्व) तो यही होगी जो इस दुनिया में है मगर उसका शरीर बिल्कुल अलग होगा। सबको मालूम है कि वहां के शरीर मरने के लिए नहीं बने होंगे, वह शरीर कभी खत्म नहीं होगा। जन्नत वालों के शरीर की तफसील तो वैसे भी जो कुछ बयान होती है उससे मालूम होता है कि वह इस तरह का शरीर बिलकुल नहीं होगा जैसा कि खून और दूसरी गंदी चीजों से आज हमारा शरीर भरा होता है, बल्कि इंसान को एक नया शरीर दिया जाएगा जो के इंसान के आमाल (कर्मों) के हिसाब से तैयार किया जाएगा।
इससे भी बढ़कर यह सवाल है कि एक इंसान खुदा की राह में जंग लड़ते हुए अगर अपना हाथ पैर या आंखें गवा बैठे तो क्या वह भी लंगड़ा लूला या अंधा उठाया जाएगा ? क्या उससे भी कहा जाएगा के तुम तो अपने अंग खत्म करके आ गए इसलिए तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा ? नहीं ऐसा बिलकुल नहीं होगा, बल्कि उसका अमल (कर्म) देखा जाएगा, नियत देखी जाएगी उसके हिसाब से अल्लाह तआला एक नया और पूरा शरीर उसे अता करेंगे। यही आखिरत की जिंदगी का उसूल है।
6- छटा मसला अज़ाब और सवाब का है। इसका जवाब यह है कि नेकी और बुराई इंसान की शख्सियत (व्यक्तित्व) करती है, अंग सिर्फ ज़रिया होते हैं। जिस समय कोई इंसान मरता है तो उसका नामा-ऐ-आलाम (कर्मों का रिकार्ड) उसकी शख्सियत (व्यक्तित्व) के साथ भेज दिया जाता है और अकाउंट बंद हो जाता है। अब फर्ज़ कीजये कि उसकी आंख किसी और को लग गई है तो अब आगे से वही उसका जिम्मेदार होगा जिसे आँख दी गई है। रहा अज़ाब और सवाब तो जैसा कि ऊपर बयान हुआ है कि यह ख्याल ही सही नहीं है कि यही वाली आंख आखिरत में लगाई जाएगी। कयामत के दिन दिए जाने वाले शरीर अपनी बनावट और गुण दोनों के लिहाज से बिल्कुल अलग होंगे। इससे बढ़कर यह कि खुद इस दुनिया में भी हमारा शरीर सारी उम्र एक ही नहीं रहता। हर पल इंसानी शरीर में पुराने सैल मरते रहते हैं और नए सेल पैदा होते रहते हैं और लगभग 10 सालों में पूरा शरीर बदल जाता है। यानी अगर हम 60 साल की उम्र तक पहुंचते हैं तो हमारी आंखें 6 बार बदल चुकी होती है। तो क्या कयामत के दिन छह अलग-अलग आंखें लगाकर लोगों को सज़ा और इनाम दिए जाएंगे ? ज़ाहिर है ऐसा बिलकुल नहीं होगा।
देखा जाए तो बात बिल्कुल सादा है कि नेकी और गुनाह इंसानी शख्सियत (व्यक्तित्व) करती है। क़यामत के दिन उस शख्सियत को ही नया शरीर दिया जाएगा और उसी शरीर पर सज़ा और इनाम होंगे। गुनाह या नेकी आंख नहीं करती बल्कि इंसान करता है इसलिए सज़ा और इनाम भी उसी इंसान को मिलेगा और उस सज़ा और इनाम के लिए कयामत के दिन उसे एक नया शरीर दिया जाएगा। वह नया शरीर इंसान के आमाल (कर्मो) के हिसाब से होगा। इसलिए हदीसों में है कि एक मुजरिम इस दुनिया में देखने वाला होने के बावजूद वहां अंधा उठाया जाएगा, और हक की राह में अपने हाथ पांव गवाने वाला पूरे शरीर के साथ उठाया जाएगा।
7- सातवी और आखरी दलील कि अक्ल को हाकिम (सब से ऊपर) समझना गुमराही है। तो यह बात बिलकुल सही है कि अक्ल को व्ही (कुरआन) पर हाकिम समझना गुमराही है, मगर मसला यह है कि यह काम तो यहाँ कोई नहीं कर रहा। अगर व्ही (कुरआन) साफ़ तौर से यह कह देता कि ये काम हराम है तो बात खत्म हो गई होती। मगर हकीकत यह है कि इस मसले में व्ही खामोश है।
जब कुरआन खामोश हो तो लोग अक्ल इस्तेमाल करके ही कोई राय कायम करते हैं। जो लोग अंग दान के खिलाफ हैं उन्होंने भी अक्ल इस्तेमाल करके ही अपनी राय कायम की है। इससे तो वह भी गुमराह हो जाते है। ऐसे में व्ही की रोशनी में अक्ल इस्तेमाल करके अंग दान की हिमायत करने वालों को गुमराह करार देना कैसे सही हो सकता है ?
आखिरी बात…
हमारे नजदीक (अनुसार) इस मामले में जरूरी बात कुरआन मजीद के अपने बयान हैं जो दूसरों की मदद करने और इंसानी जिंदगी के कीमती होने के बारे में हैं। कुरआन ने जो इंसानी जिंदगी की अहमियत बतलाई है और उसकी हिफाज़त करने का हुक्म दिया है। कुरआन मस्जिद बिल्कुल इस मामले में साफ है कि किसी की जान बचाना पूरी इंसानियत को जिंदगी देने के बराबर है। कुरआन मजीद किसी मासूम की जान को बचाने के लिए झूट बोलने और हराम चीज़ तक को खाने की इजाज़त देता है। जब जान बचाने की यह अहमियत है तो इसके बाद इस मक़सद के लिए कुछ करना और किसी की कमज़ोरी दूर करना बहुत बड़ा दीनी (धार्मिक) और अखलाकी (नैतिक) काम है। किसी की जान बचाने के जिस मकसद के लिए हराम खाने तक की इजाज़त है उसको हराम करार देने के लिए कोई मामूली दलील काफी नहीं। इसके लिए साफ हुकुम की जरूरत है जो बताता हो कि मरने के बाद अंगदान नहीं किए जा सकते। ऐसी कोई दलील हमारी जानकारी की हद तक कुरआन में मौजूद नहीं है। लेकिन इसके साथ ही हम ये समझते हैं कि हर आदमी को वह राय अपनाने का हक है जिसे वो पूरी इमानदारी से सही समझता हो, यही दीन के ऐसे मसलों में सही तरीका है। वल्लाहु आलम
लेखन :मुशर्रफ़ अहमद