अल-तक़िय्या का क्या मतबल है ?

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सही शब्द ‘तक़िय्या’ है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘डर’ (Fear) । अरबी भाषा के व्याकरणानुसार ‘अल’ जोड़कर जब ‘अल-तक़िय्या’ कहा जाता है तो उसका मतलब होगा ‘The Fear’. Noun تَقِيَّة • (taqiyya) fear, caution, prudence, dissimulation or concealing of one’s beliefs, opinions, or religion in time of duress or threat of physical or mental injury.
आम तौर पर यह शब्द एक विशेष अर्थ में बोला जाने लगा है। यह अर्थ उत्पन्न होने के पीछे कारण यह था कि इस्लाम में पहली सदी हिजरी में उमैया वंश के तत्कालीन सत्ताधारी बादशाहों तथा शिया मतावलंबियों के बीच हुए सत्ता संघर्ष में जब इमामों और उनके समर्थकों को उत्पीड़न और हिंसा का शिकार बनाया जाने लगा, तब सत्ताविरोधियों द्वारा अपने विचारों को छुपाया जाने लगा और सार्वजनिक तौर पर अपने विचार प्रकट करने से बचते हुए अपनी जान बचाने के लिये ऊपरी तौर पर उन्हीं की हां में हां मिलाना शुरू किया। बज़ाहिर इस कपटपूर्ण आचरण की कोई गुंजाइश नहीं थी क्योंकि इस्लाम ने मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) के लिये अल्लाह के सख़्त अज़ाब से डराया है। लेकिन उन लोगों ने इस अड़चन में क़ुरआन की एक आयत को ही अपनी ढाल बना लिया और कहा कि इस आयत में हमें इस तरह के व्यवहार की छूट दी गई है।


Surat No 3 : Ayat No 28 ईमानवाले ईमानवालों को छोड़कर कुफ्र करने वालों [हक़ का इनकार करनेवालों] को अपना दोस्त और मददगार हरगिज़ न बनाएँ। जो ऐसा करेगा उसका अल्लाह से कोई ताल्लुक़ नहीं। हाँ, ये माफ़ है कि तुम उनके ज़ुल्म से बचने के लिए ऊपरी तौर पर ये रवैया अपना लो। और अल्लाह तुम्हें अपने आपसे डराता है, और तुम्हें उसी की तरफ़ पलटकर जाना है।

इस तरह ‘तक़िय्या’ शिया मतावलंबियों के बीच दुश्मन के ज़ुल्म से अपने को सुरक्षित रखने के लिये एक नीति के तौर पर प्रचलन में आया और उन्हीं के यहां यह अब भी प्रचलित है। सुन्नी मतावलंबी इसे ठीक नहीं मानते और उनके यहां यह प्रचलन दुर्लभ है। तक़िय्या की यह नीति बादशाहत ख़त्म होने के बाद आधुनिक लोकतांत्रिक काल में सिर्फ़ किताबों में शेष बची थी। भारत में तो इस शब्द से पढे लिखे मुसलमान तक परिचित नहीं थे। लेकिन इस्लाम के दुश्मनों के गिरोह ने जब इस्लामी किताबों को खंगालना शुरू किया तो उन्हें पूरे इस्लामी साहित्य में दो शब्द ऐसे मिले जिनसे उन्हें बड़ा चाव है, एक शब्द था हलाला और दूसरा अल-तक़िय्या। बस तब से ऐसा ज़बरदस्त प्रचार किया जा रहा है कि आज की तारीख़ में हर मुसलमान जो शांति-सदभाव की बात करे वह उन्हें तकिया लिये दिखाई देता है।

लेखन : खालिद हफीज़ खान

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